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________________ ( २२६ ) आत्मा स्वामी है अप्पा महेसरो सामी, भावस्स अप्पणो पहू । कम्हा सो होज्जए दोणो, कसायाण हि अंतिए ॥२५॥ आत्मा महेश्वर है, स्वामी है और अपने भाव का प्रभु है। वह कषायों के ही सामने दीन किस कारण से बनता है ? टिप्पण-१. महा + ईश्वर=महेश्वर । ईश्वरवादियों की दृष्टि में ईश्वर के तीन कार्य-सृष्टि, पालन और संहार । वस्तुतः आत्मा ही अपने भवों का सृष्टा है, पालक है और संहारक है। इसलिये जीव महेश्वर है। २. स्वामी=अधिपति । जीव अपने कर्मों का अधिपति स्वयं है। अतः वह कर्मों का कर्ता भी है और भोक्ता भी है। इसलिये अपना स्वामी आप है। ३. प्रभु सत्तासम्पन्न, सामर्थ्यवान । भाव अर्थात् पर्याय ! पर्याय के दो प्रकार-विकारी और विशुद्ध । जीव विकारी और विशुद्ध-अपने दोनों प्रकार की पर्यायों का प्रभु है। ४. कषाय उसके विकारी पर्याय हैं । यद्यपि विकारी पर्याय कर्म के निमित्त से होती हैं । फिर भी जीव के उन कर्मों के अधीन हुए बिना नहीं हो सकती । यदि जीव अपना सामर्थ्य विकारी पर्यायों के निमित्त के आधीन नहीं होने दे तो उन विकारों का उस पर कोई जोर नहीं चल सकता है । ५. जीव अपना सामर्थ्य खो देता है तो दीन बनने का अवसर आता है। यदि वह महेश्वर, स्वामी और प्रभु है तो दीन क्यों बनें। कषायों के प्रति साधक के भाव 'कसाया मे कुसंताणा, परितार्वेति मं सदा । न हि तेसि वसे होमि, उवेक्खामि य ते सया' ॥२६॥ 'कषाय मेरे ही कुसंतान है। वे शठ मुझे परिताप देते हैं । मैं उनके वश में नहीं होऊँ और सदा उनकी उपेक्षा करूँ।'
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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