SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२१ ) साधक विपरीत (क्रोध, मान आदि को उत्पन्न करनेवाले) प्रसंगों के उपस्थित होने पर अथवा (साधना के) बल (का अर्जन करने) के लिये (उन प्रसंगों में) स्वयं गया हुआ आर्त और रौद्रभाव नहीं करे । टिप्पण-१. अशुभ कर्म के उदय से त्यागियों के लिये भी साधना से विपरीत प्रसंग उपस्थित होते ही हैं । साधकों में ही परस्पर कषाय के कारण रूप व्यापार उत्पन्न हो सकते हैं । अतः संसार में तो वैसे प्रसंग बनना सहज है। २. अशुभ भावों के उत्पादक निमित्तों से सदैव भागना संभव नहीं होता है। वे परीषह और उपसर्ग रूप भी हो सकते हैं । अपने त्रुटिपूर्ण व्यवहार से भी वैसे प्रसंग उपस्थित हो सकते हैं । ३. ऐसे प्रसंगों में टिके रहना उचित नहीं है, फिर भी वहाँ से दूर होने की शक्यता नहीं हो तो क्या करे ?–उन प्रसंगों के उत्पादकों के प्रति रौद्रभाव नहीं करे और उनमें आप स्वयं फँस जाने के कारण आर्तभाव भी नहीं करे । किन्तु यह चिन्तन करे कि-'मेरे अशुभकर्म का उदय है। मैं कहीं भी भागकर ऐसे प्रसंगों से नहीं बच पाऊँगा अथवा मेरे अशुभ कर्म रूप बेडोलपना इस प्रसंग रूप टॉची से ही छिला जायेगा । अतः मुझे समभाव रखना उचित है।' ४. जहाँ तक शक्य हो वहाँ तक वैसे प्रसंगों से साधक दूर रहने का प्रयास करता है। किन्तु शक्य नहीं हो तो आर्त और रौद्रभाव का निवारण करता है। ५. अपने आत्मबल की वृद्धि के लिये साधक कभी-कभी क्रोध के निमित्तों, अपमानकारक स्थानों और लुभावने स्थानों में स्वयं जाता है। प्रवचनकारों, चर्चावादियों, धर्मप्रचारकों आदि को ऐसे स्थान पर समता रखने का अभ्यास करना होता है। अतः वे इसका पूर्वाभ्यास करते हैं । ६. क्रोध का प्रसंग पाकर, झल्लाना नहीं, मान-सन्मान पाकर अपने उद्देश्य से फिसलना नहीं, किसी कटाकटी के प्रसंग में फंसकर दुराव-छिपाव, छल या वक्र व्यवहार नहीं करते हुए आत्मभाव को सुरक्षित रखना और प्रलोभनों में नहीं फंसना--यही इस अभ्यास का उद्देश्य है। ७. गुरुकुल में रहते हुए साधु को ऐसा अभ्यास कदाचित् सहज में ही हो सकता है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy