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________________ ( २१३ ) लेश्या की विशुद्धि से चित्त की विशुद्धि होती है। ४. कषायों के उदित होने पर उनके प्रसारक द्रव्य के अभाव या अल्प होने के कारण वे उग्ररूप धारण नहीं कर पाते हैं। ५. देहदर्शन से कुछ अन्य अनुभव भी हो सकते हैं। परन्तु उन अनुभवों के प्रवाह में नहीं बहनाउदासीन ही रहना । प्रतिकूल अनुभव हो तो भयभीत नहीं होना। अपनी क्रिया में लगे रहना । बाह्यप्रेक्षा (दर्शन) से करणीय कार्य जणचेट्ठा-जणाहितो, कुज्जा संग-वियोजणं । इमाए बज्म-पहाए, भावाउत्ति कमेण य ॥११॥ इस बाह्यदर्शन से क्रमशः मनुष्यों की चेष्टाओं, मनुष्यों और भाव से संग एकरूपता या आसक्ति का वियोजन करें। - टिप्पण-१. जनचेष्टा अर्थात् जनसमूह की ओर से होनेवाला अनुकुल-प्रतिकूल व्यवहार । लोकव्यवहार से मनुष्य प्रभावित होते हैं। क्योंकि वे उससे अत्यधिक संलग्न रहते हैं । २. लोकव्यवहार से दो प्रकार का भय निष्पन्न होता है-अच्छी प्रवृत्ति में भय और बुरी प्रवृत्ति में भय । पहला भय अप्रशस्त और दूसरा प्रशस्त है । लोकव्यवहार से अति संलग्न रहने से पहले प्रकार का भय उत्पन्न होता है। ३. प्रसंगदर्शन से लोकव्यवहार और लोकसंसर्ग में आसक्ति का परित्याग करें। श्वासदर्शन और देहदर्शन से मनोभाव के संग (आत्मरूपता) का वियोजन करें। ४. श्वासदर्शन से मनोभावों को और देहदर्शन से दुःख सुखरूप वेदना को देखने का अभ्यास होता है। मनोभावों और वेदना को देखने से उनकी चित्त से एकरूपता दूर होती है। जिससे चित्त उनके प्रवाह में नहीं बहता है । साधना इतनी ही नहीं है बज्झपेहाहि सुद्धी उ, मावरुज्झसु तेसु य । साहणा नेत्तियामेत्ता, नासेसं तेहि लब्भइ ॥१२॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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