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________________ ( २०३ ) रहे थे – 'मैं भी तो कभी ऐसा ही करता था। जैसे पहले ये लोग सहते थे; वैसे ही अब मुझे सहना चाहिये।' . एक बार किशोर ने जान-बूझकर एक बहुमूल्य वस्तु विनष्ट कर दी। श्रेष्ठी ने यह देखा। उस वस्तु पर उनकी ममता भी थी। और समय होता तो किशोर की खैर नहीं रहती। किन्तु अब वे क्रोध के प्रत्याख्यानी थे। अतः उन्होंने सोचा-'इस धन-वैभव का मालिक अब यही है। मैं तो अब कुछ दिन का महमान हूँ। अपने पदार्थ की सुरक्षा करे या न करे - इसकी इच्छा! अपने को क्या ?' किशोर तो मानों इस पर तुला हुआ ही था कि पिताजी कैसे भी क्रोध करें! अब श्रेष्ठी भी मन ही मन में समझ गये कि 'किशोर इतना नादान नहीं है कि वह अपनी हानि करे! लगता है कि यह मझे क्रुद्ध करने के लिये ही उल्टे-सीधे कार्य करता है। अच्छा है, करने दो परीक्षा। मैं पास होता हूँ या नहीं - यह मुझे भी देखना है ।' श्रेष्ठी को बिना पूछे ही एक बड़े भोज का आयोजन कर दिया। यह श्रेष्ठी का बहुत बड़ा अपमान था। ऐसे अपमान को सहना सरल नहीं था। 'फिर भोज भी बिना किसी प्रयोजन के किया था। श्रेष्ठीजी को यद्यपि यह बात जरा भी अच्छी नहीं लगी थी। फिर भी उन्होंने सरलता से सोचा"अच्छा है, मझे नहीं पूछा तो! अब किशोर सयाना है। क्या करना क्या नहीं करना-इसका इसे विवेक है। मुझे पूछता तो मुझे अनुमति देनी ही होती। नहीं पूछा तो आरंभ का भागीदार तो नहीं बना !' वे कुछ नहीं बोले। किशोर को आश्चर्य हो रहा था - श्रेष्ठी के अक्रोध पर! भोजन करने के लिये लोगों की पंक्तियाँ लग चुकी थीं। लोगों के आग्रह से श्रेष्ठीजी भी भोजन के लिये उन्हीं के साथ बैठ गये। किशोर भोजन परोसने लगा। वह पिता की थाल में कुछ भी न परोसकर आगे बढ़ गया। लोगों ने इस ओर ध्यान दिलाया तो उसने पंसेरी लाकर थाली में रख दी। लोगों को किशोर की धृष्टता अच्छी नहीं लगी। वे उस पर नाराज हो रहे थे और कलेजा थामकर ज्वालामुखी के फटने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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