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________________ ( १९४ ) व्यवस्थित विधि और विकल्प-- ठिच्चा सुहासणे ता णिच्च करे उज्जम मणेण सुही । जइ वा ण होइ सक्को किंचि कयाइ वि मणं मुंजे ॥१३८॥ इसकारण बुद्धिमान (साधक) सुखासन में स्थित होकर सदा ही मनोयोग पूर्वक उद्यम करे । यदि यह शक्य नहीं है तो कभी भी कुछ भी मन को (साधना में) जोड़े। टिप्पण--१. आधी गाथा में विधि का कथन किया गया है। विधि में तीन बातें प्रमुख हैं-स्थिरआसन, निरन्तरता और मौन चिन्तन । २. उत्थित या उपविष्ट आसन । उत्थित आसन अर्थात् जिनमुद्रा या कायोत्सर्ग मुद्रा । उपविष्ट आसन-पद्मासन, पल्यंकासन, अर्ध-पासन, स्वस्तिकासन आदि सुखपूर्वक बैठा जा सके वैसा आसन । ३. मौनपूर्वक मानसिक चिन्तन सर्वोत्तम है। किन्तु मानसिक चिन्तन सबके लिये सहज नहीं है । निरीक्षण के सिवाय अन्य भाव हेतु अन्य रूप से भी किये जा सकते हैं। किन्तु निरीक्षण तो मौन रूप से ही करना होता है। ४. नित्य शब्द साधना की निरन्तरता का विधान करता है। कोई भी साधना निरन्तर होती है। तभी उसका प्रभाव अनुभव में आता है। ५. प्रश्न-क्या कषाय-स्वरूप का भी सदा चिन्तन करना चाहिये ? उत्तर-हाँ, लम्बे समय तक स्वरूप चिन्तन से अपने भीतर के कषायों के निरीक्षण की योग्यता पैदा होती है और कषायों के विविध रूप पकड़ में आते हैं । कषायों के सभी रूपों का कथन शक्य नहीं है । अतः स्वरूप-चिन्तन करते हुए अनुक्त कषाय-स्तरों का बोध होता है और उन्हें निर्मूल करने की विधि का भी। ६. ये भाव-हेतु आन्तरिक पुरुषार्थ हैं । अतः इन्हें करने के लिये आन्तरिक बल अपेक्षित रहता है। इसीकारण इनके अभ्यास को भी उद्यम कहा गया है। ७. यह भाव-उद्यम करना और वह भी विधि-पूर्वक सहज नहीं है। क्योंकि इसमें करने जैसा कुछ लगता नहीं है और साधना वैसे भी नीरस या एक रस प्रक्रिया होती है । अतः रस
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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