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________________ ( १७४ ) रहते हैं और तीव्र कषाय में पुष्ट होते हैं । ५. नेता अर्थात् अग्रगामी या ले जानेवाला । कषाय भव के हेतुओं में अग्रगामी हेतु है और संसार में घसीटने - वाला भी है । क्योंकि कषाय के उपशम या क्षय का प्रारंभ होने पर भवभ्रमण घटने लगता है । ६. सागर = जल का बहुत बड़ा संग्रह । कषाय भी पापों के बहुत बड़े खजाने हैं और पाप ही जीवों के लिये दुःखों के हेतु हैं । ७. इन चारों कारणों से भी कषाय छोड़ने योग्य ही सिद्ध होते हैं । द्वार का उपसंहार और फल कसाय - यया- चिता, अवाय प्राण-रूविणी । चाय रुइ-गरा जिट्ठा, ते हु करेइ दुब्बले ॥ ११२ ॥ अपाय-विचय धर्मध्यान स्वरूपवाली, त्यागरुचि को उत्पन्न करनेवाली और (गुणों में ) ज्येष्ठ कषाय - हेयत्व - चिन्ता (पश्यना ) निश्चय ही उन ( कषायों) को दुर्बल करती हैं । टिप्पण -- १. इस द्वार में विस्तार भय से समुच्चय रूप से ही कषायों की यत्व - चिन्तना की गयी है। एक-एक कषाय की हेयत्व-पश्यना भी की जा सकती है और वह प्रत्येक कषाय का तुच्छत्व प्रकट करने के लिये आवश्यक भी है । २. यह चिन्तना स्थूल है और दिशा-निर्देशक मात्र है । साधक स्वयं उनका उपयोग - पूर्वक निरीक्षण करे और उनकी हेयता की शोध करे । ३. कषाय- हेयत्व-पश्यना धर्मध्यान के अपाय- विचय नामक भेद का ही एक अंश है । जब हेयत्व - चिन्तना गहरी होती है, तब वह धर्मध्यान में परिणत हो जाती है । ४. इस हेयत्व-पश्यना से कषायों में ममत्व - बुद्धि और निजस्वरूपता की बुद्धि का अभाव होता है । वे पर रूप हैं- आत्मा के विभाव हैं। अत: 'वे मेरे नहीं हैं और न मैं ही उनका हूँ' - ऐसे भाव होने पर उन्हें त्यागने की रुचि उत्पन्न होती है । वस्तुतः कषायों में हेयत्व सकल त्यागरुचि की जननी है । ५. कषाय में हेय - बुद्धि होने के बाद ही अन्य आत्मगुणों का आविर्भाव होता है । अतः कषाय - हेयत्व-पश्यना आराधना-गत समस्त
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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