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________________ ( १७० ) है, उनके सिवाय अन्य दृष्टि-बिंदुओं का आविर्भाव साधक जन कर सकते हैं। ४. अध्यात्मेतर दृष्टियाँ अर्थात् दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक आदि प्राचीन-नवीन विज्ञान आदि के ज्ञाता विबुध साधक उन-उन दृष्टियों से भी कषाय की हानि का चिन्तन कर सकते हैं । ५. दोनों प्रकार की दृष्टियों में प्रधानता आध्यात्मिक-दृष्टि की ही होना चाहिये। क्योंकि अन्य दृष्टियों से ये दोष उपादेय भी सिद्ध किये जा सकते हैं। इनमें उपादेय-बुद्धि बन जाने पर ये दुर्बल नहीं हो पायेंगे। अतः दृष्टि भी सम्यक् नहीं रह पायेगी और ये दोष प्रयोज्य हो जायेंगे। ६. फल का अर्थ यहाँ पर हानि ही समझना चाहिये। ताए लेसा पसत्था य, अज्झवसाणयं ददं । विवागावाय-धम्माई, होति कसाय-मंदया ॥१०६॥ उस (हानि-पश्यना) से लेश्या प्रशस्त, (प्रशस्त) अध्यवसाय दृढ़ और विपाक तथा अपाय विचय धर्मध्यान होते हैं। (अतः) कषाय की मन्दता होती है। टिप्पण-१. कषायों की हानि-पश्यना से उनमें रसवृत्ति समाप्त होने लगती है तथा आत्मनिंदा के भाव उत्पन्न होने लगते हैं। जिससे अधर्म लेश्याओं का क्रमशः अभाव होने लगता है । २. जब अप्रशस्त लेश्या खत्म होती है और प्रशस्त लेश्या का उदय होता है, तब शुभ परिणामों की धारा निरन्तर प्रवहमान होती है । जिससे शुभ परिणाम स्थिर और दृढ़ होने लगते हैं। ३. कषायों के दोष-दर्शन से अपायविचय और उनके दुष्फलों के चिन्तन से विपाकविचय नामक दो प्रकार के धर्म-ध्यानों की सिद्धि होती है। ४. तथारूप प्रशस्त लेश्या, शुभ दृढ़ अध्यवसाय और धर्मध्यान से कषाय अवश्यमेव दुर्बल होते हैं।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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