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________________ ( १६२ ) इस प्रकार लोभ से सब नाते टूट जाते हैं । लोभ से प्रामाणिकता और धर्म का नाश सेट्टिणो दस्सुया होंति, उक्कोचिया उ कम्मगा । धम्मिणोऽधम्मिया होंति, लोहो दोसो दुरंतओ ॥९॥ (लोभ के कारण ) श्रेष्ठी दस्य-लटेरे हो जाते हैं। कर्मचारी रिश्वत खोर हो जाते हैं और धार्मिक जन अधार्मिक हो जाते हैं । अहो' लोभ दुरन्त दोष है। टिप्पण-१. 'श्रेष्ठी' शब्द से वे सभी जन गृहीत हो जाते हैं, जो आजीविका के लिये स्वाश्रित कार्य करते हैं। वे स्वयं संस्थापक और व्यवस्थापक भी हो सकते हैं। वे व्यक्ति रूप में या एक वर्ग रूप में भी हो सकते हैं। श्रेष्ठी अर्थात श्रेष्ठ या सज्जन व्यक्ति । २. 'दस्यु' अर्थात् डाकू । श्रेष्ठी लोभ में डाक बन सकता है। इस शब्द से कूट तोल-कूटमाप, मिलावट, न्यासापहार आदि भी ग्रहण कर लेने चाहिये । ये सभी कार्य दुर्जनता रूप ही हैं। लोभ में श्रेष्ठता के त्याग में मनुष्य को अनौचित्य नहीं लगता। ३. कर्मक अर्थात् कार्यकर्ता--कर्मचारी, वेतन से कार्य करनेवाले मनुष्य । कर्मक वैयक्तिक भी हो सकता है और किसी व्यवस्था के अधीन भी । व्यवस्था प्रमुख रूप से चार प्रकार की हो सकती हैशासनिक, सामाजिक, सहकारी और सांघिक । शासनिक व्यवस्था के प्रमुख रूप से तीन भेद--सत्तारूप, पौरजनरूप और पंचायतरूप । इन व्यवस्थाओं के अधीन रहकर आजीविका करनेवाला कर्मचारी भी कर्मक है । ४. उत्कोच=घुस, रिश्वत । व्यवस्थागत नियमों को भंग करके अनुचित रूप से धन प्राप्त करना-उत्कोच शब्द से गृहीत है। ५. 'धर्म' शब्द से नैतिकता और पारलौकिक आराधकता दोनों को ग्रहण करना चाहिये । ६. दुरन्त =बड़ी कठिनाई से विनष्ट होनेवाला। लोभ को यदि घटाया नहीं जाता है तो वह और दुरन्त होता जाता है। अथवा दुरन्त अर्थात् बुरे अन्त
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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