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________________ ( १६० ) प्रतीक्षा कर रहे हैं। उसके मन ने पलटा खाया-क्या ऐसे वत्सल-पिता के तुल्य पूजनीय बड़े भाई को मार डालं ? किसलिये ? इन सोने के टुकड़ों के लिए? क्या ये इन पूज्य से भी विशेष हैं....' ज्यों-ज्यों वह समीप पहुँच रहा था, त्यों-त्यों उसका पश्चाताप तीव होता जा रहा था। जैसे ही उसके समीप पहुँचा, वैसे ही वह छोटा भाई बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा और जोर-जोर से रोने लगा। बड़ा भाई उसे मारना चाह रहा था। परन्तु उसे रोते हुए देखकर वह विचार में पड़ गया। उसका हृदय भी दुःखी होने लगा। उसने भाई के मस्तक पर हाथ फिराते हुए पूछा – “क्यों रो रहे हो ? क्या हुआ? कहो तो सही।" ___ छोटा भाई रोते-रोते बोला- "मुझे माफ करो ! मैं हत्यारा हूँ ! पापी हूँ। आपको मुंह दिखाने लायक नहीं हूँ !...." बड़े भाई ने अनायास ही उसके सिर को ऊपर उठाते हुए कहा – “मैं समझा नहीं। क्यों रो रहे हो? तुमने मेरा क्या अपराध किया है, जो तुम्हें माफ करूँ ?" छोटे भाई ने अपने मन में उठी हुई बात कह सुनाई और वह पुनः पुनः क्षमा याचना करने लगा। ___ अब तो बड़े भाई के भी पश्चाताप का पार न रहा। वह सोचने लगा - 'ऐसे विनीत भाई को मारने के लिये उद्यत हुआ मैं ? धिक्कार है मुझे....' वह भाई के आँसू पोंछते हुए बोला- "तुम भी मुझे माफ करो, भैया ! मेरे मन में भी ऐसे कुविचार आये थे । इस अनर्थ की जड़ यह धन ही है...." फिर उसने यह कहते हुए उस नौली को नदी में फेंक दिया कि - "इस अनर्थ की जड़ का क्या प्रयोजन, जो भाई-भाई में वैर कराती है। सचमुच में लोभ दुःखदायी है।" छोटे भाई को धन नदी में फेंके जाने पर, कुछ भी रंज नहीं हुआ। उसने कहा – “अच्छा किया, भाई ! आपने अनर्थ की जड़ ही काट दी।" वे दोनों घर पहुँचे । माता और बहिन बड़ी प्रसन्न हुईं। उन्होंने दोनों भाइयों का स्वागत किया। विशेष रूप से भोजन बनाया जा रहा था। बहिन मच्छीमार के यहाँ से खरीदकर एक बड़ी मच्छी लायी । वह रसोई
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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