SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४९ ) हो सकते हैं। चतुर्थकाल के समान आज भी सूर्य पूर्व में ही उगता है और पश्चिम में ही अस्त होता है। चतुर्थकाल में जहर मारता था और आज भी मारता है। आज भी लोग मुंह से ही खाते हैं और अन्न खाकर ही जिंदे हैं। नहीं, मैं श्रद्धा के चक्कर में नहीं पड़ सकता? मैं अपनी जिदगी को यों ही बरबाद नहीं कर सकता न इधर के रहे, न उधर के । न माया मिली, न राम ! ऐसी त्रिशंकु जैसी जिंदगी किस काम की....?" गुरु देखते ही रह गये और वे आ गये अपने घर । फिर इन्द्रपुर के एक श्रेष्ठी की कन्या के साथ उसका विवाह हो गया। पिता आदि के रात्रिभोजन के त्याग आदि नियम भी उसने भंग करवा दिये । वह कहता - "क्यों कष्ट उठाते हो-उन नियमों को पालन करके ? धर्माचरण मात्र दिखावा है। कौन है आज सच्चा संयमी? आज के साधु ढोंगी हैं-भ्रष्ट है।" 'धार्मिक जन उसके संपर्क में आना भी अच्छा नहीं समझते थे और कोई-कोई दढ़ता से प्रतिवाद भी करते थे- “अपनी भ्रष्टता दूसरे पर आरोपित मत करो! भोग के कीड़े! तुम क्या जानों धर्म को?" इसप्रकार चरित्र से संबन्धित यत्किञ्चित् छल से हुकुमचन्द्र का मिथ्यात्व तक गमन हुआ। धर्म की रूढ़ियाँ दफनायी ? तरुणकुमार शीलवान कैशोर अवस्था को पार करते-करते ही दीक्षित हो गया । वे अब शीलवान मुनि के नाम से पहचाने जाने लगे। उनमें अध्ययन की तीब रुचि थी। उन्होंने अच्छी विद्वता अर्जित की। जिससे गुरुजी और अनुयायी प्रसन्न थे। तत्कालीन विज्ञ साधुवर्ग के समान उनका भी साधना की अपेक्षा विद्वता की ओर अधिक झुकाव था । अतः साधना अत्यन्त गौण हो गयी। उन्हें अपने विकास में संयम बाधक प्रतीत होने लगा। एक दिन वे किसी मुनिजी से कह बैठे- “देखो, न ! समाज ने हमारी सभी इन्द्रियों को बाँध दिया है !"
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy