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________________ ( १४६ ) अब माया और मिथ्यात्व-इस विषय में आगम-प्रमाण दिया जाता है लोवेइ सा जहत्थतं, मिच्छाभावं च दंसइ । माइं तु मिच्छदिठिहि, बेइ पहू जिणेसरो ॥८॥ वह (माया) यथार्थता को लुप्त करती है और मिथ्याभाव को दरसाती है। इसलिये प्रभु जिनेश्वरदेव (श्रमण भगवान महावीरदेव) फरमाते हैं कि 'मायी तो मिथ्यादृष्टि ही है'। टिप्पण-१. माया 'जो वास्तव में है उसका गोपन-लोपन करती है और जो नहीं है उसे दरसाती है; अतः वह मिथ्यात्व का प्रवेश द्वार है। २. भगवतीसूत्र में भगवान ने फरमाया है-“माई मिच्छट्ठिी, अमाई सम्मट्टिी अर्थात् मायी मिथ्यादृष्टि है और अमायी सम्यकदृष्टि है। ३. मिथ्यात्व-प्राप्ति से बढ़कर अन्य कोई हानि क्या हो सकती है ? मिथ्यात्व तो समस्त साधना को ही धूलधानी कर देता है और उससे अनन्त संसार की वृद्धि हो सकती है। इस विषय से संबन्धित दृष्टान्त हुकुमो छल-मायाए, वक्कयाए य सीलवं । चरित्त-भट्ठयं धिट्ठा, मिच्छं पावेंति ते पुणो ॥८९॥ छल-माया से हुकुममुनि और वक्रता से शीलवान-मुनि वे धृष्ट बने हुए चरित्रभ्रष्टता और मिथ्यात्व को पाते हैं। टिप्पण-१. माया से चरित्र-भ्रष्टता और मिथ्यात्व की प्राप्ति भी होती है। २. चरित्रसम्पन्नमुनि होते हैं । चरित्र भाव-ऐश्वर्य है। चरित्रसम्पन्न सम्यक्त्ववान होता ही है और ज्ञानसम्पन्न भी हो सकता है। ये ही तो त्रिरत्न हैं। ३. मायी जीव ढीठ हो जाता है। वह गुरुजनों की अवहेलना करने से भी नहीं हिचकिचाता है ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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