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________________ ( १४४ ) वह ठगा जा सकता है और यदि उसके वैसे कर्मों का उदय हो न हो, तो उसपर अन्य के वंचन का उसपर कुछ भी प्रभाव नहीं होता । २. प्रश्न-जब मायी की वंचना से किसी की कुछ हानि नहीं होती है तो फिर उसे पाप क्यों लगता है ? उत्तर--माया-वृत्ति मायी की ही होती है । उसमें अन्य को छलने के भाव रहते हैं-वक्राचार होता है । अतः उसकी माया से अन्य की हानि हो या नहीं, किन्तु उसे पाप लगता ही है। क्योंकि वह उसीका दूषित भाव है । जैसे कोई अपने हाथ में आग लेकर किसी को जलाना चाहता है तो भले अन्य कोई जले या नहीं जले, किन्तु उसका हाथ तो जलता ही है। ३. मायी जीव माया करके आत्म-वञ्चना करता है। क्योंकि उसके वैसे कर्मों का बंध होता है और वे कर्म उसे भोगने होते हैं। अतः वह अपने द्वारा स्वयं ही ठगा जाता है। ४. मायी जन का विश्वास लोगों में से उठ जाता है। यद्यपि कई बार मायी किसी को कोई हानि नहीं पहुँचाता है, फिर भी सर्प के समान वह अविश्वसनीय हो जाता है । ५. जैसे विष्ठा खानेवाला सूअर मनुष्यों में घृणा-पात्र हो जाता है। कुत्ते के पिल्लों से खेलनेवाले बच्चे भी उनके बच्चों से नहीं खेलते हैं । परन्तु उन्हें दूर भगाते हैं। वैसे ही मायी जन लोगों में घृणापात्र हो जाते हैं। ६. इस गाथा में माया से उत्पन्न तीन हानियाँ बतलाई हैं--आत्मवंचना, अविश्वसनीयता और घणापात्रता । _माया की दस हानियाँ बताने के बाद माया की व्यापकता सूचित करने के लिये अगली तीन गाथाओं में उसकी पुनः परिभाषा की जाती है, जिससे उसके दोषों की विपुलता का भी बोध हो जाय । 'माया' शब्द सब कषायों का वाचक भी है सब्वे कोहाइ-भावा य, मोक्खमग्गस्स वक्कया । तम्हा मायत्ति सद्देण, ते सव्वेवि गहिज्जइ ॥८६॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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