SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२९ ) बाद में उन्हें गृहस्थों से सेवा लेना पड़ी । अतः उन्हें पश्चाताफ भी हुआ । पारलौकिक हानि इह - लोइय माणट्ठा, उभय-भट्ठ साहुणी । आलोयणं अकाऊण, भवे भमेइ रुप्पिणी ॥७५॥ - इह लौकिक मान ( की रक्षा ) के लिये उभय लोक से भ्रष्ट साध्वी रूप्पणी आलोचना न करके भव में भ्रमण करती रही । टिप्पण - १. मानव अपने अपयश के भय से अपराध को स्वीकार नहीं करता है और अपने हृदय में शल्य रखता है । २. अपने दोष को स्वीकार नहीं करने से माया का प्रवेश हो जाता है । कदाचित् क्रोध भी आ सकता है । ३. मान और माया के कारण मृषावाद आदि दोषों का सेवन होता है । अतः संयम गर्हित हो जाता है । जिससे परलोक और उससे अगला जन्म भी गर्हित होता है । यों वह उभय भ्रष्ट हो जाता है । ४. माया तीन शल्यों में एक है। जिसके कारण मोक्षमार्ग में गति का प्रतिघात होता है । यह मान जनित माया है । ५. इस विषय में रुप्पी साध्वी की कहानी जैन साहित्य में प्रसिद्ध है । मान की मोहिनी राजा की एक ही प्रिय संतान राजकुमारी थी रुप्पिणी । राजा ने उत्तम ढँग से उसका पालन-पोषण किया । युवावय में श्रेष्ठ राजकुमार से उसका विवाह कर दिया । किन्तु अल्प समय में ही राजकुमार का देहान्त हो गया । रुप्पिणी को बड़ा दुःख हुआ । उसने पति के शव के साथ सती होने की इच्छा प्रगट की । पिता ने समझाया - ' - "मोह में दग्ध मत होओ। पति का साथ इसी भव तक का होता है ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy