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________________ ( १२५ ) को तिरस्कार से अपने हृदय से निकाल फेंकता है। ३. 'मैं उच्चस्तर का मनुष्य धर्म-आराधना कैसे करूँ, 'मैं धर्म-आराधना करूँगा तो पिछड़े युग का माना जाऊँगा' 'इन तत्त्वज्ञों से अधिक ज्ञान हमें हैं। ये अज्ञानी हमें क्या मार्ग बतायेंगे' 'हम यवा लोग हैं, हम क्यों धर्म करें' अर्थात् सभ्यता, प्रगतिशीलता, शिक्षा, वय, फैशन आदि का मान व्यक्ति को धर्म से अति दूर कर देता है--धर्म करने से रोक देता है। ४. पुण्ययोग से धर्म-आराधकों का सत्संग पाकर जीव धर्मआराधना करने लग जाता है और देशविरत या सर्वविरत बन जाता है। किन्तु किंचित् अपमान पाकर या यश न पाकर या यश पाने के लिये या अपनी अवहेलना की कल्पना मात्र से जीव धर्माचरण को छोड़ देता है-व्रतों को भंग कर देता है। मान से भाव की हानि विणय-नासणो माणो, भत्ति-वच्छल्ल-नासणो । कारणोऽसुह-हासस्स, कोहस्स जणगो वि सो ॥७२॥ मान विनय का नाश करनेवाला, भक्ति-वात्सल्य का नाश करनेवाला और अशुभ हास्य का हेतु है तथा वह क्रोध का पिता अर्थात् उत्पादक है। टिप्पण-१. भावों की हानि दो प्रकार की-शुभ भावों का नाश और अशुभ भावों का उत्पादन । मान से दोनों प्रकार की हानियाँ होती हैं। २. मान से शुभ भाव के नाश के तीन उदाहरण दिये हैं। अपने से बड़ों को विनय और भक्ति-भाव समर्पित किया जाता है। मान प्रमुख रूप से विनय का नाशक तो है ही और वह भक्ति भावना को उत्पन्न नहीं होने देता है या उसे नष्ट कर देता है। अपने से छोटों को वात्सल्य प्रदान किया जाता है। मान वात्सल्य का निरोधक और विनाशक है या उसका दिखावा मात्र ही करवाता
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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