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________________ ( ११४ ) वाले साधनों को ही पहले अप्रभावी बना देते हैं । वैसे ही ज्ञान के केन्द्र और समस्त शरीर के सूचना-संग्राहक तथा प्रसारण-केन्द्र के सदृश मस्तक को ही जो तपा देता है-कार्य करने में अक्षम बना देता है, वह भाव कौन-सा हो सकता है ? ३. धूर्त-लोग ठग लोग उनकी क्रिया को कोई देख न लें-इसके उपाय करते हैं । लोचन उत्तमाङ्ग में ऐसा दिव्य प्रकाशक रत्न है कि उसके द्वारा अनिष्ट को देखकर तत्काल सावधान बना जा सकता है । परन्तु जो भाव उन्हें ही तान देता है, वह उत्तम कैसे हो सकता है । उपलक्षण से भौंहों का खिंचाव, कपाल पर सलवटें पड़ना, कानों का सुर्ख होना आदि भी गृहीत होते हैं । इसप्रकार वह भाव श्रवण-शक्ति को भी विकृत कर देता है । ४. श्री=मुख की शोभा, क्रान्ति । इष्ट जन या वस्तु का संयोग होने पर तथा प्रशस्त भाव के उदित होने पर मुख की शोभा द्विगणित हो उठती है। परन्तु जिस भाव के मन में प्रविष्ट होने पर शोभा-कान्ति विनष्ट हो जाती है, वह भाव कैसा होगा ? ५. उस भाव के कारण मुखाकृति विकृत हो जाती है, जो किसी को प्रिय नहीं हो सकती। उसके कारण स्वर का मार्य भी लुप्त हो जाता है । फटे बाँस की आवाज़ से भी अधिक कर्कश आवाज हो जाती है ६. इतने उत्तम भावों-उत्तमांग के समस्त वैभव को लूटनेवाला भाव अच्छा तो नहीं हो सकता। 'वह कौन है ?' इसका उत्तर अगली गाथा में है—'वह है क्रोध रूपी महापिशाच' । क्रोध से देह की हानि कोहो महापिसाओ सो, हियअ-रत्त-सोसओ । दुट्ठो देह-पविट्ठो हि, अणटुं न करेइ किं ॥६१॥ वह क्रोध रूपी महापिशाच हृदय के रक्त का शोषण करनेवाला है । देह में प्रविष्ट वह दुष्ट क्या अनर्थ नहीं करता है ?
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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