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________________ ( ९७ ) टिप्पण--१. कषाय का स्वरूप-चिन्तन स्वाध्याय का अनुप्रेक्षा रूप भेद है। अतः उसके फल के समान इसका भी फल होता है। २. स्वरूपचिन्ता से कषायों के रहस्य का ज्ञान होता है और चार बातें और निष्पन्न होती है-खेद, भीति, कम्पन और दौर्बल्य । खेद अर्थात् कषाय के स्वभाव में-अप्रीति-उत्पादन आदि भावों में म्लानता आना-स्थिति घात होना। भीति जैसे कि तैसे स्वरूप में फलित नहीं होना अर्थात् रसघात होता है। कम्पन=प्रदेशघात होना। स्थिति, रस और भेद तीनों के घात के कारण कषाय दुर्बल होते हैं। तम्मि रत्तो न याणेइ, भीओ वि तं न जाणइ । विबुहो जिण-आणाए, अभीओ तं वियाणइ ॥४४॥ उस (कषाय) में अत्यधिक लीन उसको नहीं जानता है और (उससे) डरा हआ भी (उसको) नहीं जानता है। किन्तु नहीं डरा हुआ विबुध = विशिष्ट ज्ञानी जिन आज्ञा से उसको विशेष रूप से जानता है। टिप्पण--१. कषाय को जानने में दो बाधक कारण-उसके वशीभूत हो जाना और उससे अतिभय । कषाय के वशीभूत बना हुआ मनुष्य उसी में बह जाता है। अतः उस पर, उसके भेद और स्तर पर कुछ भी चिन्तन नहीं कर पाता है । डरा हुआ स्थिर नहीं रह सकता है । वह धैर्य से रहित हो जाता है। अतः अपने मानसिक विकारों का वह निरीक्षण नहीं कर सकता। २. विबुहो जिणआणाए-इस पद के दो अर्थ हैं-'विशिष्ट बुद्धिधन साधक जिनदेव की आज्ञा के अनुसार' और 'जिनआज्ञा के चिन्तन द्वारा विशेषज्ञ बना हुआ साधक' । यहाँ दोनों ही अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। ३. कषायस्वरूप के चिन्तन में तीन आभ्यन्तर साधनों का उल्लेख गाथा में किया हैप्रज्ञा, जिनआज्ञा और अभय =अनाकुलता । प्रज्ञा के द्वारा स्वरूप का चिन्तन होता है। जिनआज्ञा के द्वारा कषाय और चेतना का भेद समझ में आता है। और अनाकुलता-अभय, धैर्य आदि से कषाय के स्तर आदि के विषय में परीक्षण किया जाता है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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