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________________ एयारिसे पंचकुसीलसंवुड़े, रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे । अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परत्थलोए ।। अर्थात् - ये पांच प्रकार के कुशीलिये साधु, संयम से शून्य किन्तु संयमियों का वेश धारण करने वाले हैं, ये उत्तम मुनियों के बराबर नहीं, किन्तु उनसे नीचे हैं, निम्न स्थान पर हैं । अधम हैं । वे वंदना करने के योग्य तो हैं ही नहीं, किन्तु इस लोक में विष की तरह त्याज्य हैं। उनका यह लोक भी बिगड़ता है और परलोक भी बिगड़ता है। इस प्रकार असंयमियों की संगति का त्याग करने का आगमिक विधान है । जो सुसाधु वैसे कुशीलियों से पृथक् रहकर अपनी मर्यादा का निर्वाह करते हैं, तो वे लोग अप्रसन्न होकर उन सुसाधुओं की निंदा करते हैं और अनजान लोगों को बहकाने के लिए प्रचार करते हैं कि___'ये घमंडी, अपने आपको महात्मा और उत्कृष्टा बताकर हमारी निंदा करते हैं। ये सम्प्रदायवादी हैं, पदलोलुप हैं, दंभी हैं। इन्हें गद्दी का मोह है । ये हमें अछूत मानते हैं। हमारे पास बैठने से इनका संयम बिगड़ जाता होगा। इस प्रकार निंदा करके भ्रम फैलाते रहते हैं। आचार्य का भी त्याग नियत्तणुसायनिमित्तं आहाकम्मं अणेसणिज्जं च । जो भुंजइ आयरिओ संजमकामीहिं मुत्तव्यो ||66।। ___ जो आचार्य अपने शरीर संबंधी सुख के लिए आधाकर्मी एवं अनैषणीय अग्राह्य आहार करता है, संयमप्रिय साधु को चाहिए कि उस अनाचारी आचार्य का त्याग कर के पृथक् हो - 77
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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