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स्पर्श नहीं करते और कारण उपस्थित होने पर भी जो द्रव्य का स्पर्श नहीं करते, उस गच्छ को मैं निश्चय ही गच्छ कहता हूँ ।।५२।।
संस्था के लिए अर्थ संग्रह करना और उसके हिसाब किताब देखना भी साधुता का घात करना है। जत्थ य बाला लहुचा, गिण्हंति धणेहिं पंडगजणुव्व । भासइ पवयणमग्गं, कहमत्तहिओ पवत्तेइ ||५३||
जिस गच्छ में साधु पंडक-नपुंसकजन की तरह धन देकर छोटे-छोटे बालकों को लेते हैं और प्रवचन-धर्म मार्ग की प्ररूपणा करते हैं, उस गच्छ में आत्महितकारी प्रवृत्ति कहाँ से आयगी ? ।।५३।।
वर्तमान में साधु बनाने के लिए जो साधु, धन दे दिलाकर छोटे बालकों को खरीदते हैं और ऐसा करना प्रवचन संगत बतलाते हैं, उन शिष्य लोलुपियों में आत्म विशुद्धि कारक प्रवृत्ति होना संभव नहीं है । और अधिकतर खरीदकर बनाये हुए साधु आचारहीन बनकर शासन की अवहेलना ही करवाते
हैं।
अप्पमणालोइयवओ, दिति परेसिं तवेण आलोयणा | मुसंतिअइमुद्धजणं, गिण्हति धणं अहम्मेण ||५४||
आत्ममनालोचित अर्थात् मनःकल्पित वचन बोलने वाला साधु, दूसरों को तप रूप आलोचना (प्रायश्चित्त) देता है, वह भोले जीवों को लूटता है और अधर्म के द्वारा उनका धर्म ग्रहण करता है ।।५४।। गीतार्थ के अलावा दूसरे मुनियों को आलोचना देने का अधिकार नहीं है।
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