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________________ उनका, स्वार्थ पूर्ति के लिए है । वे गृहत्यागी कहलाते हैं, किन्तु वे अणगार नहीं हैं। उन्होंने मात्र घर का परिवर्तन ही किया है-एक घर छोड़कर दूसरा घर बसा लिया हैं । खरे अणगार तो वे हैं, जो आरम्भ परिग्रह एवं संसार से सर्वथा पृथक्-विमुख होकर साधना करते हैं । खान पानादि में आसक्त एवं आरम्भ के कार्यों में रुचि रखने वाले तो गृहस्थ जैसे हैं। बायालमेसणाओ न रक्खइ धाइ सिज्जपिंडं च | आहारेइ अभिक्खं विगईओ सन्निहिं खायइ ||३२|| जो एषणा के ४२ दोषों से संयम की रक्षा नहीं करते तथा धात्रिपिंड, शय्यातरपिंड और विगयों का बारबार भक्षण करते रहते हैं तथा सन्निधि आहार करते हैं ।।३२।। [उपदेश माला गा. ३५४] जिनका खान पान साधु के योग्य नहीं है, जो रसलोलुप होकर एषणासमिति का पालन नहीं करके सभी दोषों का सेवन करते रहते हैं और रुचिकर आहार विशेष लाकर, बाद में खाने के लिए संग्रह रखते हैं, वे साधुता से वंचित असाधु हैं। सूरप्पमाणभोई आहारेई अभिक्खमाहारं । न य मंडलिए भुंजइ न य भिक्खं हिंडए अलसो ||३३|| सूर्योदय से लगाकर सुर्यास्त तक खाता रहने वाला, बिना भिक्षा के ही आहार मँगवा कर खाने वाला, मंडली में बैठकर भोजन नहीं करके अकेला ही खाने वाला, आलसी, भिक्षाचरी 1. आजकल तो टीफन का आहार लेना भी कुछ साधुओं में सामान्य बात हो गई है, इससे भी बढ़कर गृहस्थ के घर जाकर भोजन करना, होटलों में ठहरना चालू हो गया है। विहार में गाडियों में रसोई का सामान एवं ओर्डर देकर भोजन बनवाना भी अधिक मात्रा में हो रहा है। बावजूद इसके अपने को जैन साधु कहे एवं समाज उन्हें जैन साधु माने, यह कैसी विडम्बना? - 19
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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