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________________ उन्मार्ग का उपदेश करते हैं । लोकरंजन, उनका लक्ष्य रहता है । वे इसी विचार में रहते हैं कि उनका आदर सम्मान भी बना रहे और दुराचार भी चलता रहे । दुर्गति में धकेलने वाले सुगई हणंति तेसिं, धम्मियजणनिंदणं करेमाणा | आहारपसंसासु य, निंति जणं दुग्गइं बहुयं ||२९|| __ आहार की प्रशंसा करते और धर्मीजनों की निन्दा करने वाले वे वेशधारी, अपने उपासकों की सुगति का नाश करते और दुर्गति में ले जाते हैं ।।२९।। [दर्शन शुद्धि प्र. गा.९४] सरस एवं स्वादिष्ट आहार और उसके दाता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-जिनका हृदय उदार हो, जो धर्म के प्रेमी हो, जो अपने गुरु और साधु संतों को प्रिय पाहुणे की तरह अच्छी से अच्छी वस्तु, उलट भाव से देकर प्रचुर पुण्य उपार्जन करते हैं। ऐसे दानवीर ही धर्म का पोषण और प्रसार कर सकते हैं ।। वे कंजूस, मक्खीचूस, मूंजी लोग, क्या धर्म करेंगे ? उनके यहाँ मिलता ही क्या है ? कहीं साधुओं को बहस दे तो बच्चे ही भूखे मर जायँ । खुद रूखे सूखे खाने वाले, साधुओं को क्या देंगे ? ऐसे संकुचित मन वाले की भी कहीं सद्गति हो सकती हैं ? यों अनेक प्रकार से धर्मीजनों की निन्दा करते और अनजान उपासकों को गरिष्ठ एवं सरस आहार देने के लाभ बताकर उनसे आधाकर्मादि आहारादि प्रास कर उनकी सद्गति का नाश करते हुए दुर्गति की ओर धकेलते हैं । 1. ऐसा उपदेश स्वार्थ के लिए नहीं देना चाहिए । 17
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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