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सीसाइयाणं कज्जे कलहविवायं उईरंति || १६२ || जो शुद्ध साधु धर्म को अंग पर धारण नहीं करते, न शुद्ध धर्म की प्रशंसा ही करते हैं, जो श्रद्धा गुण से भी रहित हैं, परमार्थ से पतित और प्रमाद में तत्पर हैं ।। १६१ ।।
जो गृहस्थों के आगे स्वार्थवश स्वाध्याय करते हैं, परस्पर लड़ते हैं, शिष्यादि के लिए क्लेश करते हैं, विवाद उत्पन्न करते हैं ।। १६२ ।।
किंबहुणा भणिएणं बालाणं ते हवंति रमणिज्जा । दक्खाणं पुण एए विराहगा छन्नपावदहा ||१६३||
अधिक क्या कहें? ऐसे ढोंगी साधु, बाल जीवों को प्रिय लगते हैं, किन्तु दक्षजनों की दृष्टि में तो वे विराधक हैं और पाप के गुप्त द्रह के समान हैं ।। १६३ ।।
वंदणनमंत्रणाई जोगुवहाणाइ तप्पुरो विहियं । गुरुबुद्धिए विहलं सव्वं पच्छित्तजुग्गं च ॥१६४ || जम्हा भणियं छेए अस्थिक्केण रहियतित्थिलिंगीणं । पुरओ जं धम्मकिच्चं विहियं पच्छित्तचउगुरुयं || १६५||
ऐसे साधुओं को वंदना नमस्कारादि करना और गुरु बुद्धि से उनसे योग उपधान 1 आदि करना, ये सभी निष्फल होकर प्रायश्चित्त के योग्य हैं ।। १६४ ।।
छेद ग्रंथों में श्रद्धा रहित, ऐसे तीर्थी अथवा लिंगधारी के सामने, धर्म कृत्य करने का प्रायश्चित्त चतुर्गुरु कहा है । । १६५ ।। कीइकम्मं च पसंसा, सुहसीलजणम्मि कम्मबंधाय । जे जे पमायठाणा ते ते उवबूहिया हुंति ||१६६|| एवं नाऊण संसग्गिं कुसीलाणं च संथवं ।
1. महानिशिथ सूत्र के योगवहन किये हुए मुनि की निश्रा में ही करना करवाना शास्त्रोक्त है ।
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