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________________ णय आणं मन्नंति गुरुण गुरुनाणजुत्ताणं ||१५३।। गामं देसं च कुलं सड्डा सड्डी ममत्तए कुणइ । वसहिघरुल्लोयणाइ नंदिधणाई पवटुंति ||१५४|| वंदणनमंसणाइ कारंति परेसि साहुबुद्धीए । नय अप्पणो करेंति सिढिलायारा तहा एए ||१५५|| लोए इइसाहुवाया धम्मपरा धम्मदंसिणो रम्मा | परमंता निद्धम्मा निम्मेरा नडयपेडनिहा ||१५६|| ये कुशीलिए गृहस्थ लोगों को बहुत मान देते हैं और गृहस्थ भी उनके लिए कहते हैं कि-ये संयम सहित-संयमी हैं । वे लोग उत्तम ज्ञानी, गुरुओं की आज्ञा नहीं मानते ।।१५३।। __ग्राम, देश, कुल, श्रावक और श्राविकाओं, इन सभी को वे कुसाधु, ममत्व भाव वाले बनाते हैं और वसति (उपाश्रय) घर और चंदोवे आदि तथा नान्दि-धनादि (नांद बनाकर धन संग्रह करना) की वृद्धि करते हैं ।।१५४।। अपने को साधु बताकर दूसरे साधुओं से अपने को वंदना नमस्कार करवाते हैं । स्वयं शिथिलाचारी होते हुए भी वे किसी अन्य साधुओं को वंदना नमस्कार नहीं करते ।।१५५।। ऐसे साधुओं की लोगों में प्रशंसा होती है । लोग कहते हैं कि-ये साधु, धर्म में रक्त हैं, धर्मोपदेशक हैं और मनोहर हैं, किन्तु वे सभी अधर्मी, मर्यादाहीन और नाटक पाटक पार्टी के सदस्य जैसे हैं ।।१५६।। जिसके मन में साधुता की भावना नहीं हो, जो केवल दंभ और ढोंग से ही अपना जाल फैलाकर लोगों से प्रशंसित होते हैं, वे नाटक कंपनी के सदस्य-स्वांगधर अथवा बहुरूपिये जैसे ही हैं। 144
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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