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हैं। हमें तो वेश देखना चाहिए । उनके आचार की ओर देखने की हमें आवश्यकता नहीं है। हमारे लिये वेश ही प्रमाण है । इस भ्रांत धारणा ने कुशीलियों को प्रोत्साहन दिया ।
एक महानुभाव ने युक्ति लगाई-'यदि निर्मल जल नहीं मिले और प्यास के मारे प्राण जाते हों, तो मैला पानी पीकर भी प्राण बचाना पड़ता है, उसी प्रकार शुद्ध चारित्रवान् साधु नहीं मिले, तो कुशीलियों से भी धर्मोपदेश सुनकर धर्मरूपी प्राण को बचाये रखना चाहिए ।'
इस प्रकार की कुयुक्तियाँ लगाकर दुराचारियों का बचाव किया जाता है। किन्तु जिनाज्ञा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता । वे भोले लोग यह नहीं सोचते कि कुशीलियों के कारण निग्रंथ धर्म की प्रतिष्ठा गिरती है । उनके दुराचार, स्वार्थान्धता, पक्षपात और संयमहीनता से लोगों की धर्म से रुचि हटती है । बहुत से अज्ञ जीव तो इसी कारण धर्म से विमुख हो जाते हैं । कई लोग तो ऐसे भी होते हैं कि इनके आचरण को देखकर आगमिक विधानों और महापुरुषों के विशुद्ध संयम तथा उग्रतप आदि की बातों को ही बनावटी, असत्य एवं अतिशयोक्ति से पूर्ण मानने लगते हैं और सबसे बड़ी बाधा तो जिनेश्वर भगवंत की आशातना होती है । जिनेश्वर भगवंत ने तो निरारंभी, निष्परिग्रही एवं निरवद्य साधना से आत्मा के मोक्ष लक्ष्य को सिद्ध करने का विधान किया है और वैसे ही साधु को सुसाधु मानने की आज्ञा दी है । कुशीलियों को मान्यता देने से इस आज्ञा का उल्लंघन होता है और आज्ञा उल्लंघन से अनंत संसार का परिभ्रमण होता है।
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