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जे समणा कज्जाइ वित्तरक्खाइ कुव्वंति ||१२९|| किंवा देह वराओ मणुओ सुट्ठ वि धणी विभत्तो वि | आणाइक्कमणं पुण तणुयं पि अणंतदुहहेऊ ||१३०।।
उनकी साधुता भी भ्रष्ट है और व्रत भी भ्रष्ट है-जो धन रक्षणादि कार्य करते हैं ।।१२९।। __यदि धनवान् व्यक्ति विरुद्धाचरण करे, तो वह बिचारा क्या कर सकता है ? किन्तु भगवान् की आज्ञा का सूक्ष्म किचिंत् उल्लंघन भी अनंत दुःखों का कारण होता है ।।१३०।।
साधु के पांचवें महाव्रत में यह प्रतिज्ञा होती है कि-"मैं अल्प मात्र भी परिग्रह, न तो स्वयं रखूगा न दूसरे से रखवाऊंगा, न परिग्रह रखने-रखाने का अनुमोदन ही करूँगा । मैं सभी प्रकार के परिग्रह का तीन करण और तीन योग से त्याग करता हूँ"-इस प्रकार की प्रतिज्ञा गुरु के सामने करता है । इनमें से कई पवित्रात्माएँ तो इसका सच्चाई के साथ पालन करती है, किन्तु कई ऐसी भी होती हैं- जो प्रतिज्ञा को तोड़कर संयम भ्रष्ट हो जाती है । वस्त्र-पात्रों का अधिक संग्रह, उपाश्रयों का परिग्रह और इसके अतिरिक्त धन का संग्रह भी किया जाता है ।
उस समय स्थिति इतनी अधिक बिगड़ गयी थी कि कई प्रसिद्ध आचार्य आदि उपासकों से रजत और स्वर्ण मुद्रा की भेंट-पूजा भी स्वीकार करने लगे थे । उपासकों को उपदेश देने और प्रत्याख्यान कराने की भी भेंट लगती थी । देवद्रव्यादि पर भी उनका मोह रहता था । वर्तमान में भी परिग्रह रखने के कई मार्ग चल रहे हैं। संस्थाओं के लिए साधु स्वयं परिग्रह संग्रह करवाते हैं । वे उपासकों को प्रभावित करके उनसे पैसे निकलवाते
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