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________________ I बदलने का अधिकार नहीं है । जो संयम मर्यादा को क्षति पहुँचाने वाले नियम बनाते हैं, उनके हृदय में आगम एवं परंपरा के प्रति श्रद्धा नहीं है । वे सब कुछ करने में स्वतंत्र है, तभी तो शिथिलाचार ही नहीं, मिथ्या प्रचार निःसंक होकर किया जा रहा है । यदि थोड़े से बचे हुए संतों को भी सब में एकमेक कर दिया और वे भी एक मेक हो गये, तो निग्रंथ साधुता के वास्तविक रूप के थोड़े नमूने रहे हैं, वे भी नहीं रह जायेंगे और 1 जमानानुसार फैशन बदलने वाली युवती जैसी दशा जैन साधुओं की हो जायगी । जिस प्रकार आंग्लवेशभूषा अथवा राजाओं बादशाहों का शाही लिबास, परंपरागत रहता है, भारतियों की तरह परिवर्तनशील नहीं होता, उसी प्रकार धर्म के नियम एवं आचार प्रणाली भी किसी की इच्छा या अनुरोध से प्रभावित नहीं होती । आस्रव संवर नहीं बन जाता और संवर आस्रव नहीं हो जाता, क्योंकि ये तात्त्विक नियम, विशुद्ध आत्म-विज्ञान के आधार पर बने हैं । किसी समय या परिस्थिति विशेष से इन नियमों में परिवर्त्तन नहीं आ जाता । जैन तत्त्वज्ञान तीनों काल में अबाधित है । इसके विपरीत जो सोचते, बोलते, लिखते, प्रचार करते और दूसरों से अनुरोध करते हैं, वह प्रवृत्ति जिनेश्वर भगवान् के धर्म के अनुकूल नहीं है । । उत्सूत्राचरण का फल उस्सुत्तमायरंतो बंधइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवड्डूइ माया मोसं च कुव्वइ य ॥ ११२ ॥ उत्सूत्राचरण करता हुआ जीव, अत्यंत चिकने कर्मों का 103
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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