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________________ कारण से, संयम से विपरीत जाते हुए अपने शिष्यादि को नहीं रोकते, वे तीर्थंकरों की आज्ञा के विराधक हैं । गच्छाचारपइन्ना में सूत्रकार महाराज फरमाते हैं किउम्मग्गठिए सम्मग्गनासए जो उ सेवए सूरी । निअमेणं सो गोयम!, अप्पं पाडेइ संसारे ।। २९ ।। जो आचार्य उन्मार्गगामी हैं और सम्यग्मार्ग का लोप कर रहे हैं, ऐसे आचार्य की सेवा करने वाले शिष्य भी संसार समुद्र में डूबते हैं । श्री स्थानांग सूत्र (५-२) में लिखा कि 'जो आचार्य, अपने शिष्यों पर नियंत्रण नहीं रख सकें, उनसे सदाचार का पालन नहीं करवा सकें तो उन्हें अपने पद का त्याग कर अलग हो जाना चाहिए ।' आचार्य का काम मात्र उच्च पद पर आसिन होकर संघ का आदर पाने का ही नहीं है । उनका कर्त्तव्य ओर भी है । जो आचार्य खरे खोटे सभी को समान रखता है, यह योग्य नहीं कहा जा सकता । , राजा या राज्याधिपति भी चोर, जार और बदमाश को दंड देता है. सज्जनों का आदर करता है, तभी उसका राज्य शांति " पूर्वक चल सकता है, अन्यथा अनीति, चोरी, जारी और लूट मचती है । प्रजा दुःखी होती है और उस राज्य का पतन होता है, उसी प्रकार यदि आचार्य भी संयमी और आचार भ्रष्टों को योग्य शिक्षा नहीं देता, उल्टा उनका रक्षण व पोषण करता है, तो वह अपने संघ का अहित करता है, संघ का पतन करता है । वह 84
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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