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बन्दर उछलता कूदता शीघ्र अपने झुंडमें जा मिला । इधर हृदयमें वज्र-प्रहारके समान वेदना भोगता हुआ श्रीदत्त विचार करने लगा कि- " धिक्कार है ! बन्दरने एकदम ये क्या दुर्वचन कहा ? जो मुझे समुद्रमें अचानक बहती हुई मिली वह मेरी कन्या किस भांति हो सकती है ? तथा यह सुवर्णरेखा भी मेरी माता कैसे हो सकती है ? मेरी माता तो इससे किंचित् ऊंची है, उसके शरीरका वर्ण भी कुछ श्याम है । अनुमानसे उम्रके वर्ष गिनू तो यह कन्या कदाचित् मेरी पुत्री हो ऐसा संभव है; परन्तु सुवर्णरेखा मेरी माता हो यह कदापि संभव नहीं; तथापि इससे पूछना चाहिये." __ यह सोचकर उसने सुवर्णरेखासे पूछा तो उसने स्पष्ट उत्तर दिया कि, " अरे मुग्ध ! यहां विदेशमें तुझे कौन पहिचानता है ? तूं व्यर्थ जानवरके कहनेसे क्यों अममें पडता है ?" परन्तु श्रीदत्तके मनकी शंका इससे दूर न हुई । वह शीघ्र वहांसे उठा। ... जिस कार्य में शंका उत्पन्न हो जाय उसे करना सत्पुरुषको कभी योग्य नहीं । जान बूझ कर कौन प्राणी अथाह जलमें प्रवेश करता है ?
__ इधर उधर भ्रमण करते हुए श्रीदत्तंने एक मुनिराजको देखा, और उनको वन्दना करके पूछा कि, " हे स्वामिन् ! एक बन्दरने मुझे भ्रांति-समुद्र में डाला है । आप ज्ञानकी सहायतासे मेरा उद्धार करिये."