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उसकी स्त्री सोमश्री अत्यन्त सुन्दर थी । उसको श्रीदत्त नामक एक पुत्र तथा श्रीमती नामक पुत्र--वधू थी । इन चारोंका मिलाप उत्तम पुण्यके योगही से हुआ था। कहा भी है कि
यस्य पुत्रा वशे भक्ता, भाया छंदोनुवर्तिनी ।
विभवेष्वपि संतोषस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ॥ १ ॥ जिस पुरुषका पुत्र आज्ञाकारी हो, स्त्री पतिव्रता तथा आज्ञाधारिणी हो तथा वह मिले उतने ही द्रव्यमें संतुष्ट हो उसे यही लोक स्वर्ग है । एक समय सोमश्रेष्ठि स्त्री सहित वायु सेवनार्थ उद्यानमें गया । देवयोगसे राजा सूरकान्त भी उसी उद्यानमें आया। वहां सुन्दर सोमश्रीको देखकर उस पर आसक्त हो गया और राग वश होकर क्षण मात्रमें उसे अपने अन्तःपुरमें भेज दिइ । सत्य है-तरुणावस्था, धनकी विपुलता, अधिकार तथा अविवेक इन चारोंमेंसे कोई एक वस्तु भी हो तो अनर्थकारी है तो फिर जहां चारों एकत्र हो जावे वहां अनर्थ उत्पन्न होनेमें संशय ही क्या है ?
सोमश्रेष्ठिन मंत्री आदिसे प्रेरणा की तदनुसार उन लोगोंने पुक्ति पूर्वक राजाको समझाया कि “महाराज ! अन्याय अकेला ही राजरूप लताको जलाकर भस्म कर देनेके लिये दावाग्निके समान है, ऐसी अवस्थामें कौन राज्यवृद्धिकी इच्छुक व्यक्ति परस्त्रीकी लालसा करता है ? सदैव राजा लोग ही प्रजाको अन्याय मार्गसे बचाते हैं उसके बदले यदि स्वयं वेही अन्याय