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एकसौ पैंतीस वर्षके अनन्तर सिद्धराज जयसिंहके दंडाधिपति सज्जननें तीन वर्षमें सौराष्ट्रदेशकी जो सत्तावीस लाख द्रम्म उपज आती थी, वह खर्चकर उक्त जिनप्रासाद पूर्ण कराया. सिद्धराजजयसिंहने सजनसे जब उक्त द्रव्य मांगा, तब उसने कहा कि, "महाराज ! गिरनार पर्वत पर उस द्रव्यका निधि कर रखा है." पश्चात् सिद्धराज वहां आया और नबीन सुन्दर जिनमंदिर देख हर्षित हो बोला कि, 'यह मंदिर किसने बनवाया ?' सज्जननें कहा-"महाराजसाहेबने बनवाया." यह सुन सिद्धराजको बडा आश्चर्य हुआ. तदनन्तर सज्जननें यथार्थ बात कहकर विनती करी कि- "ये सर्व महाजन आपका द्रव्य देते हैं, सो लीजिए अथवा जिनमंदिर बनवानेका पुण्य लीजिए, जैसी आपकी इच्छा" विवेकी सिद्धराजने पुण्यही ग्रहण किया, और उक्त नेमिनाथ के मंदिरके खाते पूजाके निमित्त बारह ग्राम दिये. वैसेही जीवन्तस्वामीकी प्रतिमाका मंदिर प्रभावतीरानीने बनवाया. पश्चात् क्रमशः चंडप्रद्योतराजाने उस प्रतिमाकी पूजाके लिये बारह हजार ग्राम दिये. यथाः
चंपानगरीमें एक स्त्रीलंपट कुमारनंदी नामक स्वर्णकार रहता था। उसने पांचपांचसौ सुवर्णमुद्राएं देकर पांचसो कन्याओंसे विवाह किया। वह उनके साथ एकस्तंभवाले प्रासादमें क्रीडा किया करता था। एक समय पंचशैलद्वीपनिवासी हासा व प्रहासा नामक दो व्यंतरियोंने अपने पति विद्युन्माली