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________________ (७५३) सन्मान करना इत्यादि पूर्वोक्त घरकी विधिके अनुसार सर्व उचित विधि ही विशेष कर यहां जानो. कहा है कि-धर्म करनेके लिये उद्यत पुरुषने किसीको भी अप्रीति हो ऐसा न करना चाहिये । इसी प्रकारसे संयम ग्रहण करना हितकारी है। इस विषयमें महावीरस्वामीका दृष्टांत है कि-- उन्होंने " मेरे रहनेसे इन तपस्वियोंको अप्रीति होती है, और अप्रीति अबोधिका बीज है " ऐसा सोचकर चौमासे के समयमें भी तपस्त्रियोंका आश्रम छोडकरके विहार किया। जिनमंदिर बनवाने के लिये काष्ठादि दल भी शुद्ध चाहिये. किसी अधिष्ठायक देवताको रुष्ट कर अविधिसे लाया हुआ अथवा आरंभ समारंभ लगे इस रीतिसे अपने लिये बनाया हुआ भी न हो, वही काममें आता है। कंगाल मजदूर लोग अधिक मजदूरी देनेसे बहुत संतोष पाते हैं, और संतुष्ट होकर अधिक काम करते हैं। जिनमंदिर अथवा जिनप्रतिमा बनवावे तव भावशुद्धिके लिये गुरु तथा संघके समक्ष यह कहना कि, “ इस काममें अविधिसे जो कुछ परधन आया हो, उसका पुण्य उस मनुष्यको होवे । षोडशकमें कहा है कि जिस जिस की मालिकी. का द्रव्य अविधिसे इस काममें आया हो उसका पुण्य उस धनीको होवे । इस प्रकार शुभपरिणामसे कहे तो वह धर्मकृत्य भावशुद्ध हो जाता है। नींव खोदना, भरना, काष्ठके खंड करना, पत्थर घडवाना, जुडवाना, इत्यादि महारंभ समारंभ
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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