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(७५१) चतुर्थ द्वार
मित्र जो है, वह संपूर्णकार्यों में विश्वासपात्र होनेसे समअपर मददआदि करता है। गाथामें ' आदि' शब्द है जिससे वणिक्पुत्र ( मुनीम ), सहायक, नौकरआदि भी धर्म, अर्थ और कामके कारण होनेसे उचित रीति ही से करना चाहिये । उनमें उत्तमप्रकृति, साधर्मिकता, धैर्य, गंभीरता, चातुर्य, सुबुद्धिीद गुण अवश्य होना चाहिये । इस विषयके दृष्टांत पहिले व्यवहारशुद्धिप्रकरणमें कहे जा चुके हैं।
(मूलगाथा ) चेइ पडिम पइट्ठा,
सुआइपव्वावर्णा य पयठवां ॥ पुत्थयलेहणवायण
पोसहसालाइकारवणं ॥ १५ ॥ संक्षिप्तार्थः-५ जिनमंदिर बनवाना, ६ उसमें प्रतिमा स्थापन कराना, ७ जिनबिंबकी प्रतिष्ठा करना, ८ पुत्रआदिका दीक्षाउत्सव करना, ९ आचार्यादि पदकी स्थापना करना, १० पुस्तकें लिखवाना, पढवाना और ११ पौषधशालाआदि बनवाना ॥ १५ ॥ पंचम द्वार
ऊंचा तोरण, शिखर, मंडपआदिसे सुशोभित जैसा भरतचक्रवर्तिआदिने बनवाया था, वैसा रत्नरचित, सुवर्णरौप्यमय