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(५४ ) मनही मन इस भांति स्तुति करने लगे कि, “अहो इस राजाका मन धर्म में कितना तल्लीन है ? इसका कुटुम्ब भी कैसा धर्मी है ? तथा इसका सत्व भी कितना दृढ है ?
सिंहमंत्री चिताके समान चिन्तासे व्याकुल होकर विचार करने लगा कि अब क्या होगा ? इस समय क्या करना उचित है ? उसका हृदय-कमल संतापसे कुम्हला गया और समय होने पर वह सोगया। इतनेमें शत्रुजयके अधिष्ठायक सिंह नामक यक्षने स्वप्नमें प्रकट होकर उसे कहा कि, " हे मंत्रीश! चिन्ता न कर, राजा जितारिके साहससे संतुष्ट होकर मैं अपनी दिव्यशक्तिसे शत्रुजय तीर्थको यहां पास ही ले आता हूं । प्रातःकाल में तुम प्रयाण करोगे वैसे ही तुमको निश्चय शत्रुजयके दर्शन होंगे, वहां भगवान ऋषभदेवके दर्शन करके तुमने अपना अभिग्रह पूर्ण करना." यह सुन मंत्रीने स्वप्न ही में यक्षसे कहा कि "हे यक्ष ! जैसे तूंने मुझे सावधान किया वैसेही सब लोगोंको भी कर, ताकि सबको विश्वास आवे, " मंत्रीके वचनानुसार यक्षने सब लोगोंको स्वप्नमें उक्त बात कह दी और उसी समय उसने क्षणमात्रमें उस वनके पर्वत पर नया शत्रुजय तीर्थको बनाकर स्थापित कर दिया । सत्य है, देवता क्या नहीं कर सकते । देवताओने विकुर्वित की हुई वस्तु यद्यपि अधिक समय तक न रहे किंतु एक पक्ष तकही रह सकती है परन्तु गिरनार ऊपरकी जिन-मूर्तिके समान देवताओंने रची हुई वस्तु तो चिरकाल तकभी रहती है ।