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भव्यप्राणी वहां स्नात्र पूजा करे तो हजार सागरोपम के बराबर अशुभकर्मक स्थितिका क्षय होता है। कोई भव्यजीव शत्रुंजयपर्वतकी ओर जानेके लिये एक एक पैर रखे तो करोडों भवोंमें किये हुए पापोंसे भी वह मुक्त हो जाता है। कोई शुद्धपरिणामवाला प्राणी अन्य स्थान पर करोड पूर्व पर्यन्त शुभध्यान करके जितना शुभ कर्म संचय करता है, उतना शुभ कर्म इस पर्वत में दो घडी मात्र शुभ ध्यान करने से संचय कर लेता है । करोडों वर्ष तक मुनिराजको इच्छित आहार देनेसे तथा साधर्मी भाईको इच्छाभोजन देनेसे जो पुण्य संचित होता है वही पुण्य शत्रुंजयपर्वत ऊपर सिर्फ एक उपवास करनेसे संचित होता है; जो भव्य प्राणी भावपूर्वक शत्रुंजयपर्वतको वंदना करता है उसने स्वर्ग में, पाताल में तथा मनुष्यक्षेत्र में जितने तीर्थ हैं उन सबका दर्शन कर लिया ऐसा समझना चाहिये । यदि कोई प्राणी श्रेष्ठ शत्रुंजयतीर्थ के दर्शन करे अथवा न करे परन्तु जो शत्रुंजय को जाते हुए संघका वात्सल्य करे तो भी बहुत ही शुभ कर्म संचय करता है, यथा:
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शत्रुंजयपर्वतको न देख कर भी जो शत्रुंजय के संघका ही केवल वात्सल्य करता है उसे साधारण साधर्मीवात्सल्यकी अपेक्षा करोडगुणा पुण्य प्राप्त होता है, तथा जो शत्रुंजय के दर्शन करके संघ वात्सल्य करता है वह अनंतगुणा पुण्य प्राप्त करता है । जो भव्य प्राणी मन, वचन कायाकी शुद्धि रखकर
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