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भांति भांतिकी तपस्या धर्मानुष्ठान करना, कि जिससे शुभ आयुष्य उपार्जन हो, प्रथम ही से आयुष्य बंधी हुई हो तो पीछेसे बहुतसा धर्मानुष्ठान करनेसे भी वह नहीं टलती. जैसे पूर्व में राजाश्रेणिकने गर्भवती हरिणीको मारी, उसका गर्भ अलग कर अपने कंधेकी तरफ दृष्टि करते नरकगतिकी आयुष्य उपाजन करी. पीछेसे उसे क्षायिकसम्यक्त्व हुआ, तो भी वह आयुष्य नहीं टली. अन्यदर्शनमें भी पर्वतिथिको अभ्यंगस्नान (तैल लगाकर न्हाना) मैथुनआदि करना मना किया है. विष्णुपुराणमें कहा है कि हे राजेन्द्र ! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा और सूर्यकी संक्रान्ति इतने पर्व कहलाते हैं. जो पुरुष इन पर्यों में अभ्यंग करे, स्त्रीसंभोग करे, और मांस खावे तो वह मनुष्य मर कर "विण्मूत्रभोजन" नामक नरकको जाता है. मनुस्मृतिमें भी कहा है कि- ऋतुहीमें स्त्रीसंभोग करनेवाला और अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा और चतुर्दशी इन तिथियोंमें संभोग न करनेवाला ब्राह्मण नित्य ब्रह्मचारी कहलाता है. इसलिये पर्वके अवसर पर अपनी पूर्णशक्तिसे धर्माचरणके हेतु यत्न करना चाहिये. समय पर थोडासा भी पानभोजन करनेसे जैसे विशेष गुण होता है, वैसेही अवसर पर थोडाही धर्मानुष्ठान करनेसे भी बहुत फल प्राप्त होता है. वैद्यकशास्त्रमें कहा है कि--शरदऋतु में जो कुछ जल पिया हो, पौषमासमें तथा माहमासमें जो कुछ भक्षण किया हो और ज्येष्ठ तथा आषाढमासमें जो कुछ निद्रा