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गुरुथुइ गहणे थु ति-णि वद्धमाणक्खरस्सरा पढः ॥ सक्वत्थवं थवं पढि-अ कुणइ पच्छित्तउस्सग्गं ॥ १८ ॥
अर्थ:--- गुरु स्तुति कहे "नमोऽस्तु वर्द्धमानाय" इत्यादि तीन स्तुति उच्चस्तरसे कहना. पश्चात् नमोत्थुणं कह प्रायश्चित्तके लिये काउस्सग्ग करना ॥ १८ ॥
एवं ता देविसिअं, राइअमवि एवमेव नवरि तहिं ॥ पढमं दा मिच्छा--मि दुक्कडं पढइ सक्थयं ॥ १९॥
अर्थः--इस प्रकार देवसीप्रतिक्रमणकी विधि कही. राइ. प्रतिक्रमणकी विधि भी इसीके अनुसार है, उसमें इतना ही विशेष है कि, प्रथम मिच्छामि दुक्कडं देकर पश्चात् शक्रस्तव कहना ॥ १९ ॥
उहिअ करेइ विहिणा, उस्सगं चिंतए अ उज्जोअं॥ बीअं दंसणसुद्धी --इ चिंतए तत्थ इणमेव ॥ २० ॥
अर्थः-- उठकर यथाविधि काउस्सग्ग करे, और उसमें लोगस्स चितवन करे, तथा दर्शनशुद्धिके लिये दूसरा काउस्सग्ग कर उसमें भी लोगस्सका ही चितवन करे ॥ २० ॥
तइए निसाइआरं, जहक्कम चिंतिऊण पारेइ ॥ . सिद्धत्थयं पढित्ता, पमज्ज संडासमुवविसइ ॥ २१ ॥
अर्थः तीसरे काउस्सग्गमें क्रमशः रात्रिमें हुए अतिचारोंका चितवन करे, व पश्चात् पारे. तदनंतर सिद्धस्तव कह संडासा प्रमाजेन करके बैठे ॥ २१॥