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(५७३) तो सुकुमार कुमार और कहां वह कठोर विद्याधर. तथापि कुमारने विद्याधरको जीता, इसका कारण यह है कि जहां धर्म हो वहीं जय होता है। विद्याधरराजाके सेवक भी उसके साथ ही भाग गये. ठीकही है दीवेके बुझ जाने पर क्या पीछे उसकी प्रभा रहती है ? तदनंतर जैसे राजा सेवकके साथ महलमें आता है, वैसे कुमार दुर्जयशत्रुको जीतनेसे उत्कर्ष पाये हुए देवताके साथ प्रासादमें आया. कुमारका अतिशय चमत्कारिक चरित्र देखकर तिलकमंजरी हर्षसे पुलकित हो मनमें विचार करने लगीकि, "त्रैलोक्यमें शिरोमणीक समान यह तरुणकुमार पुरुषोंमें रत्न है. इसलिये भाग्यवश मेरी बहिन जो अभी मिल जाय तो ऐसे पतिका लाभ होवे." इस प्रकार विचार करती, मनमें उत्सुकता, लज्जा और चिन्ता धारण करने वाली तिलकमंजरीके पाससे कुमारने बालिकाकी भांति हंसिनीको उठा ली.
हंसिनी कहती है कि, “ धीरशिरोमणी, सर्वकार्यसमर्थ, वीररत्न हे कुमारराज ! तू चिरकाल जीवित व विजयी रह. हे क्षमाशील कुमार ! दीन, दरिद्री, भयातुर और अनार्य ऐसा मैंने अपने लिये तुझे बहुत खेद उत्पन्न किया, उसके लिये क्षमा कर. वास्तवमें विद्याधरराजाके समान मुझ पर उपकार करनेवाला कोई नहीं. कारण कि, उसीके भयसे मैं अनंतपुण्योंसे भी अलभ्य तेरी गोदमें आकर बैठी. धनवान पुरुष के