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(५५६) मंजरी जैसे प्रचंडवेगसे वृक्षकी मंजरी गिर जाती है, वैसे मूञ्छित होकर पडी है, वह ऐसी मालूम होती है मानो कंठमें प्राण रखकर अशरण होगई हो ?" घाव पर क्षार पडने अथवा जले हुए स्थान पर छाला होनेके समान यह वचन सुन राजा कनकध्वज कुछ मनुष्योंके साथ शीघ्र ही तिलकमंजरीके पास आया । चंदनादि शीतल उपचार करनेसे बड़े प्रयाससे वह सचैतन्य हुई और विलाप करने लगी-" मदोन्मत हस्तिके समान गतिवाली मेरी स्वामिनी ! तू कहां है ? मुझ पर अपूर्व प्रेम होते हुए तू मुझे यहां छोडकर कहां चली गई ? हाय २! मुझ अभागिणीके प्राण तेरे वियोगसे शरण रहित और चारों ओरसे बाणद्वारा बिंधे हुएके समान हुए अब किस प्रकार रहेंगे ? हे तात ! मैं जीवित रह गई इससे बढकर दूसरी कौनसी अनिष्टकी बात है ? मेरी भागनीका असह्यवियोग मैं अब कैसे सहन करूं?" इस प्रकार बिलाप करती हुई तिलकमंजरी पागलकी भांति धूलमें लौटने तथा मछलीकी भांति तडपने लगी। जैसे दावानलके स्पर्शसे लता सूखती है, वैसे वह खडी २ ही इतनी सूख गई कि किसीको भी उसके जीवनकी आशा न रही. इतनेमें उसकी माता भी वहां आकर इस प्रकार विलाप करने लगी- “ हे दुर्दैव ! तुने निर्दयी होकर मुझे ऐसा दुःख क्यों दिया ? मेरी एक पुत्रीको तो तु हरण कर लेगया और दूसरी मेरे देखते २ मृत्युको प्राप्त होगी ? हाय ! हाय ! मैं मारी गई.