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हे भारत ! गुरु, सती स्त्रियों, धर्मी पुरुषों तथा तपस्वियोंकी हंसीमें भी निन्दा न करना चाहिये । किसीकी वस्तु न चुराना, किंचित्मात्र भी कटु वचन नहीं बोलना, मधुर वचन भी मिथ्या न बोलना, पर दोष न कहना, महापापसे पतित लोगोंके साथ वार्तालाप न करना, एक आसन पर न बैठना, उनके हाथका अन्न ग्रहण नहीं करना तथा उनके साथ कोई भी कार्य नहीं करना । चतुरमनुष्यने लोकमें निन्दा पाये हुए पतित, उन्मत्त, बहुतसे लोगोंके साथ बैर करनेवाले और मूर्खके साथ मित्रता नहीं करना तथा अकेले मार्ग प्रवास न करना, हे राजा ! भयंकर रथमें न बैठना, किनारे पर आई हुई छायामें न बैठना तथा आगे होकर जलके वेगके सन्मुख न जाना । जलते हुए घरमें प्रवेश न करना, पर्वतकी चोटी पर न चढना, मुख ढांके बिना जंभाई, खांसी तथा श्वास न लेना । चलते समय ऊंची, इधर उधर तथा दूर दृष्टि न रखना, पैरके आगे चार हाथके बराबर भूमि पर दृष्टि रखकर चलना । अधिक न हंसना, सीटी आदि न बजाना, शब्द करता वातनिसर्ग न करना, दांतसे नख न तोडना तथा पग पर पग चढाकर न बैठना, दाढी मूंछके बाल न चाबना, बारंबार होंठ दांतमें न पकडना, झूठा अन्नादि भक्षण न करना तथा किसी भी स्थानमें चोरमार्गसे प्रवेश न करना । उन्हाले तथा चौमासेकी ऋतुमें छत्री लेकर तथा रात्रिमें अथवा वनमें