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(५०१) कोई नहीं पूछता. राजाके साथ धनका व्यवहार न रखनेका कारण यह है कि, किसी सामान्य क्षत्रियसे भी अगर अपना लेना मांगे तो वह खड्ग बतलाता है, तो भला स्वभाव ही से क्रोधी ऐसे राजाओंकी क्या बात कहना ? इत्यादि समव्ययसायी नागरलोगोंके सम्बन्धमें उचितआचरण है. समान व्यवसाय न करनेवाले नागरलोगोंके साथ भी ऊपरोक्त कथनानुसारही यथायोग्य बताव करना चाहिये. ॥ ४० ॥
एअं परुप्परं नायराण पाएण समुचिआचरणं ।। परतिस्थिआण समुचिअमह किंपि भणामि लेसेणं ॥४१॥
अर्थः-नागरलोगोंने परस्पर कीस प्रकार उचितआचरण करना चाहिये सो कहा. अब अन्यदर्शनीलोगोंके साथ किस प्रकार उचितआचरण करना, वह लेशमात्र कहते हैं ॥४१॥
एएधि तिथिआणं, भिक्खट्ठमुवट्ठिाण निअगेहे ॥ कायव्वमुचिकिच्चं, विसेसओ रायमहिआणं ॥ ४२ ॥
अर्थः--अन्यदर्शनी भिक्षुक अपने घर भिक्षाके निमित्त आवे तो उनको यथायोग्य दानआदि देना. उसमें भी राजमान्य अन्यदर्शनी भिक्षाके लिये आवें, तो उन्हें विशेषतः दानआदि देना. ॥ ४२ ॥ जइवि न मणमि भत्ती, न पक्खवाओ अ तग्गयगुणेसु ॥ उचिअं गिहागएसुति तहवि धम्मो गिहीण इमो ॥ ४३ ।।