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अर्थः-धर्माचार्यकी बताई हुई रीतिसे आवश्यक आदि कृत्य करना तथा उनके पास शुद्धश्रद्धापूर्वक धर्मोपदेश सुनना. (२९)
आएसं बहु मन्नइ, इमेसि मणसावि कुणइ नावनं ॥ रंभइ अवनवाय, थुइवायं पयडइ सयावि ॥ ३०॥
अर्थ:--धर्माचार्यके आदेशका अत्यादर करे, उनकी मनसे भी अवज्ञा न करे. अधर्मीलोगोंके किये हुए धर्माचार्यके अवर्णवादको यथाशक्ति रोके, किन्तु उपेक्षा न करे, कहा है किसजनोंकी निन्दा करनेवाला ही पापी नहीं, परन्तु वह निंदा सुननेवाला ही पापी है. तथा नित्य धर्माचार्यका स्तुतिवाद करे, कारण कि समक्ष अथवा पीठ पर धर्माचार्यकी प्रशंसा करनेसे असंख्य पुण्यानुबंधि पुण्य सचित होता है । (३०)
न हवइ छिद्दप्पेही, सुहिव्व अणुअत्तए सुहदुहेसु ॥ पडिणीअपञ्चवायं, सव्वपयत्तेण वारेई ॥ ३१ ॥
अर्थ:--धर्माचार्यके छिद्र न देखना, सुखमें तथा दुखमें मित्रकी भांति उनके साथ वर्ताव करना तथा प्रत्यनीकलोगोंके किये हुए उपद्रवोंको अपनी पूर्णशक्तिसे दूर करना. यहां कोई शंका करे कि, " प्रमाद रहित धर्माचार्यमें छिद्र ही न होते, इसलिये ' उन्हें न देखना' ऐसा कहना व्यर्थ है. तथा ममता रहित धर्माचार्यके साथ मित्रकी भांति बर्ताव किस तरह करना?" इसका उत्तर " सत्य बात है, धर्माचार्य तो प्रमाद व ममतासे