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दारने भी कही हुई मुद्दत ही में कर्ज चुका देना चाहिये. कारण कि, मनुष्यकी प्रतिष्ठा मुखसे निकले हुए वचनको पालने ही पर अवलंबित है. कहा है कि--
___ तत्तिअमितं जपह जत्तिअमित्तस्स निक्कयं वहह । __ तं उक्खिवेह भारं जं अद्धपहे न छंडेह ॥ १ ॥
जितने वचनका निर्वाह कर सको, उतने ही वचन तुम मुंहसे निकालो. आधे मार्गमें डालना न पडे, उतना ही बोझा पाहलेसे उठाना चाहिये. कदाचित् किसी आकस्मिक कारणसे धनहानि होजावे, व उससे करी हुई कालमर्यादामें ऋण न चुकाया जा सके तो थोडा थोडा लेना कुबूल कराकर लेनदारको संतोष करना. ऐसा न करनेसे विश्वास उठ जानेसे व्यवहारमें भंग आता है।
विवेकापुरुषने अपनी पूर्णशक्तिसे ऋण चुकानेका प्रयत्न करना. इस भवमें तथा परभवमें दुःख देनेवाला ऋण क्षण भर भी सिर पर रखे ऐसा कौन मूर्ख होगा ? कहा है कि
धर्मारम्भे ऋणच्छेदे, कन्यादाने धनागमे । शत्रघातेऽग्निरोगे च, कालक्षेपं न कारयेत् ॥१॥ तैलाभ्यङ्गमृणच्छेदं, कायामरणमेव च ।
एतानि सद्योदुःखानि, परिणामे सुखानि तु ॥२॥
धर्मका आरम्भ, ऋण उतारना, कन्यादान, धनोपार्जन, शत्रुदमन और अग्नि तथा रोगका उपद्रव मिटाना आदि जहां तक