________________
(३१७) तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र दैवहत कस्तत्रैव यान्त्यापदः ॥ १ ॥
एक सिरपर गंजवाला मनुष्य सिरपर धूप लगनेसे बहुत तपगया, और शीतलछायाकी इच्छासे दैवयोगस बेलवृक्षके नीचे जा पहुंचा तो वहां भी ऊपरसे गिरे हुए एक बेलफलसे " कडाक" शब्द करके उसका सिर फूटा । तात्पर्य यह है कि, भाग्यहीन पुरुष जहां जावे वहां आपत्ति भी उसके साथ ही आती है । इस भांति भिन्न भिन्न नौसौ निन्नानवे स्थलों में, चौर, जल, अग्नि, स्वचक्र, परचक्र, महामारी आदि अनेक उपद्रव होनेसे निप्पुण्यकको लोगोंने निकाला । तब वह अत्यन्त दुःखी हो एक घने वनमें आराधकोंको प्रत्यक्ष फलदाता सेलक नामक यक्षके मंदिरमें आया व अपना सर्व दुःख यक्षसे कहकर एकाग्रचित्तसे उसकी आराधना करने लगा । एक दिवस उपवास करनेसे प्रसन्न हो यक्षने उसे कहा कि, " प्रतिदिन संध्याके समय मेरे सन्मुख स्वर्णमय एक हजार चंद्रक धारण करनेवाला मोर नृत्य करेगा, उसके नित्य गिरे हुए पंख तू लेना." निष्पुण्यकने यक्षके इन वचनोंसे हर्षित हो नित्य २ मयूर पंख एकत्र करना शुरु किया. इस तरह करते नौ सौ पंख एकत्रित हुए, शेष सो रह गये. तब दुर्दैवकी प्रेरणासे उसने विचार किया कि, "शेप रहे हुए पंखों के लिये अब कितने दिन १ मोरके पंखपर जो नेत्राकार चिन्ह होते हैं उन्हे चंद्रक कहते हैं ।