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नेवाले पुरुषने देशकालके अनुसार थोडी अथवा अधिक वन्दना विधि पूर्वक करना यह भावार्थ है । इस जिनमतमें धर्मानुष्ठान चार प्रकारका कहा है । एक प्रीतिअनुष्ठान, दूसरा भक्तिअनुष्ठान, तीसरा वचनअनुष्ठान और चौथा असंगअनुष्ठान, बालादिककी जैसी रत्नमें प्रीति होती है, वैसे ही सरल प्रकृति पुरुषको जो पूजा-वंदनादि अनुष्ठान करते मनमें प्रीतिरस उत्पन्न होवे, वह प्रीतिअनुष्ठान है । शुद्ध विवेकी भव्यजीवको बहुमानसे पूजा-वंदनादि अनुष्ठान करते जो प्रीतिरस उत्पन्न होवे तो वह भक्तिअनुष्ठान है। जैसे पुरुष अपनी माताका व स्त्रीका पालन पोषण समान ही करता है, वो भी माताका पालनादिक भक्तिसे (बहुमानसे ) करता है, और स्त्रीका पालनादिक प्रीतिसे करता है । वैसे ही यहां प्रीतिअनुष्ठान और भक्तिअनुष्ठानमें भी भेद जानो। जिनेश्वर भगवानके गुणोंका ज्ञाता भव्यजीव सूत्रमें कही हुई विधिसे जो वंदना करे, वह वचनअनुष्ठान जानो। यह वचनानुष्ठान चारित्रवान पुरुषको नियमसे होता है । फलकी आशा न रखनेवाला भव्यजीव श्रुतावलम्बन बिना केवल पूर्वाभ्यासके रस ही से जो अनुष्ठान करता है, वह असंगअनुष्ठान है। यह जिनकल्पिआदिको होता है। जैसे कुम्हारके चक्रका भ्रमण प्रथम दंडके संयोगसे होता है, वैसे वचनानुष्ठान आगमसे प्रवर्तता है। और जैसे दंड निकाल लेने पर भी पूर्वसंस्कारसे चक्र फिरता रहता है,