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________________ ( २६९ ) श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपत मासोपवासं फलम् ॥ ३ ॥ जो वणिक् वायुके समान चंचल, निर्वाणको अंतराय करनेवाले, बहुतसे नायकों के आधीन रहे हुए, स्वल्प व अंसार ऐसे धनसे स्थिर, मोक्षको देनेवाला स्वतंत्र अत्यंत व सारभूत ऐसी जिनेश्वर भगवान् की पूजा करके निर्मल पुण्य उपार्जित करता है, वही वणिक वाणिज्यकर्म में अतिनिपुण है । श्रद्धावन्त मनुष्य " जिनमंदिर को जाऊंगा" ऐसा विचार करनेसे एक उपवासका, जानेके लिये उठते छडका, जानेका निश्चय करते अमका, मार्गमें जाते चार उपवासका, जिनमंदिरके बाहर भाग में जाते पांच उपवासका मंदिर के अन्दर जाते पंद्रह उपवासका और जिनप्रतिमाका दर्शन करते एकमासके उपवासका फल आता है। पद्मचरित्र में तो इस प्रकार कहा है कि:-- (तीर्थादि में श्रद्धावन्त श्रावक "जिनमंदिरको जाऊंगा" ऐसा मनमें विचारनेसे एक उपवासका मार्गको जाने लगने से तीन उपवास का, जानेसे चार उपवासका, थोडा मार्ग उल्लंघन करने से पांचउपवासका आधा मार्ग जानेसे पंद्रह उपवासका, जिनभवनका दर्शन करने से एक मासके उपवासका, जिनमंदिर के अंगने में प्रवेश करनेसे छः मासके उपवासका, मंदिर के बाहर जाते बारह मासके उपवासका प्रदक्षिणा देनेसे सौ वर्ष के उपवासका, जिनप्रतिमाकी पूजा करने से हजार वर्षके उपवासका फल पाता है, 9
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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