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है । इस रीतिसे करी हुई यह अनाभोग द्रव्यपूजा भी गुणस्थानका स्थानक होनेसे गुणकारी ही है, कारण कि. इससे क्रमशः शुभ शुभतर परिणाम होता है, और सम्यक्त्वका लाभ होता है । __ असुह फखएण धणिअं, धन्नाणं आगमेसिभदाणं ।
अमुणिअगुणेऽवि नूणं, विसए पीई समुच्छलइ ॥ १०॥
भावीकालमें कल्याण पानेवाले धन्य जीवों ही को 'गुण नहीं जानने पर भी पूजादिमें जैसे अरिहंतके बिंवमें तोतेके जोडेको उत्पन्न हुई, वैसे ही अशुभ कर्मके क्षयसे ही प्रीति उत्पन्न होती है। भारेकर्मी और भवाभिनंदी जीवों ही को पूजादिविषयमें जैसे निश्चयसे मृत्यु समीप आने पर रोगी मनुष्यको पथ्यमें द्वेष उत्पन्न होता है, वैसे ही द्वेष उत्पन्न होता है । इस लिये तत्वज्ञ पुरुष जिनबिंबमें अथवा जिनेंद्रप्रणीतधर्ममें अशुभपरिणामका अभ्यास होनेके भयसे लेश मात्र द्वेषसे भी दूर रहता है। दूसरेके प्रति जिनपूजाका द्वेष करने पर कुंतलारानीका दृष्टांत इस प्रकार है:
अवनिपुरमें जितशत्रु राजाकी अत्यंत धर्मनिष्ठ कुंतला नामक पट्टरानी थी। वह दूसरोंको धर्ममें प्रवृत्त करने वाली थी, अत एव उसके वचनसे उसकी सर्व सपत्नियां ( सौते ) धर्मनिष्ठ होगई तथा कुंतलाको बहुत मानने लगीं । एक समय सर्व रानियोनें अपने २ पृथक् सर्व अंगोपांगयुक्त नये जिनमंदिर तैयार करवाये । जिससे कुंतला रानीके मनमें बहुत ही मत्सर उत्पन्न हुआ । वह अपने मंदिर ही में उत्तम पूजा, गीत नाटक आदि