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इसका पाठ कह कर मंगलदीप आरतीके अनुसार उतार कर देदीप्यमान ऐसाही जिन भगवानके सन्मुख रखना । आ. रती तो बुझा दी जाती है । उसमें दोष नहीं । मंगल दीप तथा आरती आदि मुख्यतः तो घी, गुड, कपूर आदि बस्तुसे किये जाते हैं । कारणकि, ऐसा करने में विशेष फल है । लोकमें भी कहा है कि- भक्तिमान् पुरुष देवाधिदेवके सन्मुख कर्पूरका दीप प्रज्वलित करके अश्वमेधका पुण्य पाता है तथा कुलका भी उद्धार करता है । यहां "मुक्तालंकार" इत्यादि गाथाएं हरिभद्रसूरिजीकी रची हुई होंगी ऐसा अनुमान किया जाता है, कारणकि, उनके रचे हुए समरादित्यचरित्रके आरंभमें "उवणेउ मंगलं वो" ऐसा नमस्कार दृष्टि आता है। ये गाथाएं तपापक्षआदि गच्छमें प्रसिद्ध हैं, इसलिये मूलपुस्तकमें सब नहीं लिखी गई । स्नात्रआदि धर्मानुष्ठानमें सामाचारीके भेदसे नानाविध विधि दीखती हैं, तो भी उससे भव्यजीवने मनमें व्यामोह ( अमुझाना, घबराना ) नहीं करना । कारण कि सबको अरिहंतकी भक्तिरूप धर्म ही का साधन करना है । गणधरों की सामाचारीमें भी बहुत भेद होते हैं, इसलिये जिस २ आचरणसे धर्मादिकको विरोध न आवे, और अरिहंतकी भक्तिकी पुष्टि होवे वह आचरणा किसीको भी अस्वीकार नहीं । यही न्याय सर्व धर्मकृत्योंमें जानो । इस पूजाके अधिकारमें लवण, आरती आदिका उतारना संप्रदायसे सब गच्छमें तथा पर-दर्शनमें भी