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(२२६) आचार्य समाधान करते हैं कि- “ सर्व जिन- प्रतिमाओंका प्रातिहार्यआदि परिवार समान ही है, उसे प्रत्यक्ष देखनेवाले ज्ञानी पुरुषोंके मनमें तीर्थंकरोंमें परस्पर स्वामीसेवकभाव है ऐसी बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। मूलनायकजीकी प्रतिष्ठा प्रथम हुई इसलिये उनकी पूजा प्रथम करना यह व्यवहार है, इससे बाकी रही तीर्थकरकी प्रतिमाओंका नायकपन नहीं जाता। उचित प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष एक प्रतिमाको बंदना पूजा तथा बलि अर्पण करे तो, उससे दूसरी प्रतिमाओंकी आशातना देखनेमें आती नहीं । जैसे मिट्टीकी प्रतिमाकी पूजा, अक्षत आदि वस्तु ही से करना उचित है. और सुवर्णआदि धातुकी प्रतिमाको तो स्नान, विलेपन इत्यादिक उपचार भी करना उचित है । कल्याणक इत्यादिकका महोत्सव होये तो एक ही प्रतिमाकी विशेष पूजा करे तो जैसे धर्मज्ञानी पुरुषोंके मनमें शेष प्रतिमाओंमें अवज्ञा परिणाम नहीं आते, इस प्रकार उचितप्रवृत्ति करनेवाले पुरुषको मूलनायकजीकी प्रथम और विस्तारसे पूजा करने में भी शेष प्रतिमाओंकी अवज्ञा और आशातना नहीं होती.
जिन-मंदिर में जिन-प्रतिमाकी पूजा की जाती है, वह जिनेश्वर भगवानके हेतु नहीं परन्तु बोध पाये हुए पुरुषोंको शुभ भावना उत्पन्न करने तथा बोध न पाये हुए पुरुषोंको बोध प्राप्त करनेके हेतु की जाती है । कोई २ भव्य जीव चैत्य