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इत्यादिका मनमें चिन्तवन करना । पश्चात् यतना पूर्वक बालाकूचीसे जिनबिम्ब ऊपरके चन्दनादिक उतार पुनः प्रक्षाल करके दो अंगलूइणोंसे ( अंगपूंछनेका वस्त्र ) जिनबिम्ब ऊपरका सर्व पानी पोंछ लेना पश्चात् पांवके दो अंगूठे, दो घुटने, हाथकी दो कलाई, दो कंधे और मस्तक इतने स्थानकी अनुक्रमसे पूजा करना, ऐसा कहा है अतः आगे वर्णन किया जायगा उसके अनुसार सीधे क्रमसे नवों अंगोंमें चंदन, केशर आदि वस्तुओंसे पूजा करे । कोई २ आचार्य कहते हैं कि प्रथम कपाल पर तिलक कर पश्चात् नवाङ्गकी पूजा करना । श्रीजिनप्रभमूरिने करी हुई पूजाकी विधिमें तो सरस और सुगन्धित चंदनसे भगवानका दाहिना घुटना, दाहिना कंधा, कपाल बांया कन्धा और बांया घुटना इन पांच अथवा हृदय सहित छः अंगमें पूजा कर ताजा फल और वासक्षेप इन दो द्रव्योंसे पूजा करे, ऐसा कहा है । जो पहिले किसीने पूजा करी होवे,
और अपने पास पहिली पूजासे श्रेष्ठ पूजा करनेकी सामग्री न होवे तो वह पूजा दूर नहीं करना, कारण कि, उस ( सुंदर ) पूजाके दर्शनसे भव्यजीवोंको होने वाले पुण्यानुबंधिपुण्यके अनुबंधको अन्तराय करने का प्रसंग आता है । अतएव पहिली पूजा न उतार कर अपने पासकी सामग्रीसे उसे बढाना । बृहद्भाष्य में कहा है कि-जो प्रथम किसीने बहुतसा द्रव्यव्यय करके पूजा करी होवे, तो वही पूजा जिस तरह विशेष शोभा