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(१८५) है, और भवचरिम उपवास तथा आंबिल ये तीनों पच्चक्खान तिविहार तथा चौविहार होते हैं। शेष पच्चक्खान दुविहार, तिविहार तथा चौबिहार भी होते हैं । इस प्रकार पच्चकखानमें आहारके भेद जानों।
नीवी, आंबिल इत्यादिकमें कौनसी वस्तु ग्राह्य है, अथवा कौनसी अग्राह्य है ? इस बातका निर्णय अपनी अपनी सामाचारीके ऊपरसे जानना । अनाभोग, सहसात्कार इत्यादिक आगारका पच्चक्खानभाष्यादिकमें कहा हुआ प्रकट स्वरूप सिद्धांतके अनुसार भली भांति मनमें रखना, ऐसा न करे तो पच्चक्खान शुद्ध होनेका संभव नहीं ।
पवित्र होने की विधि. मूलगाथाके उतरार्द्ध में आये हुए " पडिकमिअ" इस पदकी इस प्रकार विस्तृत व्याख्या हुई । अब " सुई पूइअ" इत्यादि पदकी व्याख्या करते हैं । मल मूत्रका त्याग, दांतन करना, जीभ घिसना, कुल्ला करना, सर्वस्नान अथवा देश स्नान इत्यादिक करके पवित्र हुआ। यहां पवित्र होना यह लोकप्रसिद्ध बातका अनुवाद मात्र है । कारण कि मलमूत्र त्याग आदि प्रकार लोकप्रसिद्ध होनेसे शास्त्र उसे करनेका उपदेश नहीं करता । जो वस्तु लोकसंज्ञासे नहीं प्राप्त होती, उसी वस्तुका उपदेश करना यह अपना कतव्य है ऐसा शास्त्र समझता है । मलमलीन शरीर होवे तो नहाना, भूख लगे तो