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' क ' अर्थात् दुष्कर्मका क्षय करे तथा इन्द्रियादिकका संयम करे उसे श्रावक कहते हैं ।
श्राद्धशब्दका अर्थ.
जिसकी सद्धर्ममें श्रद्धा है, वह 'श्राद्ध' कहलाता है । (मूल शब्द श्रद्धा था उसमें " प्रज्ञाश्रद्धाच वृत्तेर्ण: " इस व्याकरणसूत्र से 'ण' प्रत्यय लगाया, तो प्रत्यय के णकारका लोप और आदि वृद्धि होनेसे ' श्राद्ध ' यह रूप होता है ) । श्रावकशब्दकी भांति ' श्राद्ध' शब्दका उपरोक्त अर्थ भावभावक ही की अपेक्षा से है । इसीलिये गाथामें कहा है कि " यहां भाव श्रावकका अधिकार है । "
इस भांति चौथी गाथा में श्रावकका स्वरूप बताया | अब दिवसकृत्य, रात्रिकृत्य, आदि जो छः विषय हैं उसमें से प्रथम ' दिवसकृत्य ' की विधि कहते हैं:
( मूल गाथा . ) नवकारेण विबुद्ध,
सरेइ सो सकुलधम्मनियमाई ॥ पडिकमिअ सुई पूइअ,
गिहे जिणं कुणइ संवरणं ॥ ५ ॥ भावार्थ:- " नमो अरिहंताणं " इत्यादि नवकारकी गणना करके जागृत हुआ श्रावक अपने कुल धर्म, नियम इत्यादिकका चिन्तवन करे ।